Friday, November 22, 2024
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Irony : 38 वर्ष बाद भी 38,000 नागरिकों की मौत के जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड/डाव केमिकल्स के मालिकों को सजा नहीं, कब मिलेगा न्याय?

7400 करोड़ मुआवजे को लेकर याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय में हो रही है बहस, संवैधानिक व्यवस्था के चारों स्तंभों ने गैस पीड़ितों के अस्तित्व को ही नकार दिया, मध्य प्रदेश के राज्यपाल के पास किसानों और गैस पीड़ितों के प्रतिनिधियों से मिलने का समय नहीं, राज्यपाल इस्तीफा दें

डॉ. सुनीलम

गैस त्रासदी की आज 38 वीं बरसी 3 दिसंबर दिल्ली के साथ साथ गैस पीड़ितों के द्वारा भोपाल में भी मनाई गई।
उल्लेखनीय है कि 2 दिसंबर 1984 की रात को हुई दुनिया की सबसे भयंकर औद्योगिक त्रासदी के परिणाम स्वरुप अब तक 38 हजार निर्दोष नागरिकों की मौत हो चुकी है। भारत सरकार ने यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन के साथ सर्वोच्च न्यायालय में 14-15 फरवरी 1989 में समझौता किया। समझौते के तहत 700 करोड़ रुपये 3000 गैस पीड़ित मृतकों को तथा 1 लाख 2 हजार घायलों को मुआवजा दिया था। सरकार के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई लेकिन 3 अक्टूबर 1991 को सर्वोच्च न्यायालय ने रिव्यू पिटीशन खारिज कर दी। इस बीच 1992 से 2004 के बीच वेलफेयर कमिश्नर, भोपाल ने कुल गैस पीड़ितों की संख्या 5 लाख 74 हजार पायी। इस तथ्य से यह साफ हो गया कि 1 लाख 5 हजार पीड़ितों का मुआवजा 5 लाख 74 हजार पीड़ितों को बांटा गया अर्थात् समझौते के मुताबिक पीड़ितों को मुआवजे का पांचवा हिस्सा दिया गया।


इस मुद्दे को लेकर जब भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन और भोपाल गैस पीड़ित संघर्ष सहयोग समिति ने वेलफेयर कमिश्नर और हाईकोर्ट के समक्ष अपील की तब उस अपील को खारिज कर दिया गया। तब याचिकाकर्ताओं ने 2010 को सर्वोच्च न्यायालय में स्पेशल रिव्यू पिटीशन दायर की, जिस पर सुनवाई जारी है। याचिकाकर्ताओं ने 7400 करोड़ मुआवजे की मांग की है।
सर्वोच्च न्यायालय में 28 जनवरी 2020 को क्यूरेटिव पिटिशन पर संवैधानिक पीठ ने सुनवाई शुरू की है। अगली तारीख 10 जनवरी 2023 की लगी है। आज भोपाल गैस पीड़ितों के संगठनों द्वारा दिल्ली के जंतर मंतर तथा भोपाल में राज्यपाल के राज भवन पर प्रदर्शन किया गया। भोपाल में राज्यपाल ने गैस पीड़ितों के प्रतिनिधियों से मिलने से इंकार कर दिया।
इसके पहले भी 26 नवंबर को संयुक्त किसान मोर्चा से जुड़े किसान संगठनों के नेतृत्व में पांच हजार किसानों ने राजभवन पर प्रदर्शन किया था लेकिन उन्हें भी राज्यपाल ने मिलने का समय नहीं दिया । यदि राज्यपाल के पास किसानों के प्रतिनिधियों और गैस पीड़ितों के प्रतिनिधियों से मिलने का समय नहीं है तो राज्यपाल कौन से महत्वपूर्ण कार्यों में व्यस्त है, यह जानकारी राज भवन कार्यालय को सार्वजनिक करनी चाहिए। ऐसे राज्यपाल को राष्ट्रपति को बर्खास्त कर देना चाहिए।


गत 38 वर्षों का चारों संवैधानिक स्तंभों के मूल्यांकन से पता चलता है कि विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया में से किसी ने भी गैस पीड़ितों का साथ नहीं दिया है। जब तक हजारों गैस पीड़ितों की मौत के जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड के अधिकारियों और प्रशासनिक अधिकारियों को सजा नहीं हो जाती विधान सभा ,लोकसभा और राज्यसभा
की कार्यवाही रोक दी गई होती।
कार्यपालिका से जुड़े अधिकारियों को बर्खास्त कर दिया गया होता।
न्यायपालिका ने स्वतः संज्ञान लेकर हत्यारों को सजा और गैस पीड़ितों को उचित मुआवजे के साथ साथ सम्पूर्ण पुनर्वास कराया होता। अखबारों और चैनलों ने गैस पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए सतत मुहिम चलाई होती।
सभी ने गैस पीड़ितों के अस्तित्व को ही नकार दिया।
इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस और अमरीका ने यूनियन कार्बाइड कंपनी और डाव केमिकल पर कानूनी पाबंदी लगाकर औद्योगिक त्रासदी के जिम्मेदार अधिकारियों को सजा दी होती।
परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ।

गैस पीड़ितों के लिए भोपाल में सन 2000 से सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर भोपाल मेमोरियल अस्पताल और रिसर्च सेंटर बनाया गया था। जिसमें गैस पीड़ितों का इलाज होना था लेकिन जो गैस पीड़ित नहीं थे उनका भी इलाज होने लगा। सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार को मेमोरियल अस्पताल के संचालन का आदेश दिया लेकिन आज भी अस्पताल में डॉक्टरों, विशेषज्ञों, कंप्यूटराइज्ड मेडिकल रिकॉर्ड आदि की कमी है। आज अस्पताल में 4.5 लाख ऐसे पंजीकृत गैस पीड़ित है जिन्हें इलाज की जरूरत है लेकिन उन्हें इलाज नहीं मिल रहा है। एम्स अस्पताल 2012 में चालू हुआ लेकिन वहां की सुविधाओं का लाभ गैस पीड़ितों के अलावा अन्य मरीजों को मिल रहा है।
दोषियों को सजा देने के लिए कोई विशेष न्यायालय नहीं बनाया गया है।
भोपाल में 10 – 11 लाख टन जहरीला कचरा आज भी यूनियन कार्बाईड फैक्ट्री में मौजूद है। जिसके चलते भोपाल का पानी जहरीला हो रहा है। कुल मिलाकर गैस पीड़ितों के संपूर्ण पुनर्वास का इंतजाम आज तक सरकारों द्वारा नहीं किया गया है। गैस त्रासदी के 38 साल बाद हम देखते हैं कि गैस पीड़ितों के साथ चंद संगठनों एवं संस्थाओं के अलावा कोई खड़ा दिखाई नहीं दे रहा है। इससे पता चलता है कि समाज और देश के तौर पर हम कितने संवेदनहीन ही नहीं अमानवीय और क्रूर हो गए हैं।
हालांकि धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले भोपाल और दिल्ली में सरकारों पर काबिज हैं।

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