दिल्ली, जो इन दिनों स्मॉग और धुंध की गिरफ्त में है, वहां बारिश की आस तो सबको थी — लेकिन जो बरसा, वो सिर्फ सरकारी खर्च था।
हवा में नमी नहीं आई, धूल नहीं बैठी, और लोगों की सांसें अब भी वही बोझिल हैं।
इस सबके बीच, दिल्ली सरकार के मंत्री सौरभ भारद्वाज ने बड़ा सवाल उठाया —
“जब बादल ही नहीं थे, तो क्लाउड सीडिंग क्यों की गई?”
उम्मीद थी कि आसमान साफ़ होगा…
दिल्ली की हवा इन दिनों किसी गैस चैंबर से कम नहीं।
स्कूल बंद, निर्माण कार्य रुके, और लोगों को घरों में रहने की सलाह दी गई।
ऐसे में जब वैज्ञानिकों ने कहा कि “क्लाउड सीडिंग” यानी कृत्रिम बारिश से राहत मिल सकती है, तो लोगों के मन में उम्मीद जगी थी।
दिल्ली सरकार ने IIT कानपुर की टीम के साथ मिलकर इस प्रोजेक्ट को हरी झंडी दी।
मकसद साफ़ था — आसमान से बारिश बरसे, हवा साफ़ हो, और दिल्ली फिर से सांस ले सके।
लेकिन न बारिश हुई, न राहत मिली।

करोड़ों रुपये खर्च, लेकिन नतीजा “0”
क्लाउड सीडिंग तकनीक में विमान से बादलों में केमिकल (आमतौर पर सिल्वर आयोडाइड या सोडियम क्लोराइड) डाले जाते हैं ताकि बारिश हो सके।
लेकिन इसके लिए जरूरी होता है — बादलों की पर्याप्त मौजूदगी।
और दिल्ली में, उस वक्त आसमान लगभग साफ़ था।
फिर भी सरकार ने प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाया।
विमान उड़े, केमिकल डाले गए, मीडिया में खबर चली — “दिल्ली में अब कृत्रिम बारिश होगी।”
लेकिन नतीजा?
आसमान में बस जहाज़ों की गूंज रही, बारिश की एक बूँद नहीं।
सौरभ भारद्वाज ने इस पर खुलकर कहा —
“अगर बादल ही नहीं थे, तो क्लाउड सीडिंग का फैसला किस आधार पर लिया गया? जनता का पैसा क्यों बर्बाद किया गया?”
सियासी बहस छिड़ गई
यह बयान आते ही सियासत गरमा गई।
एक ओर वैज्ञानिक दावा कर रहे थे कि “ये एक प्रयोग था, नतीजे तुरंत नहीं दिखते”,
तो दूसरी ओर विपक्ष ने इसे “पब्लिसिटी स्टंट” करार दिया।
भारद्वाज ने कहा कि दिल्ली में पर्यावरण संकट कोई “PR कैंपेन” नहीं, बल्कि लोगों की जान से जुड़ा मुद्दा है।
उनके शब्दों में —
“लोग दम घुटने से मर रहे हैं, और आप फाइलों में प्रयोग कर रहे हैं? ये प्रयोग नहीं, मज़ाक है।”
वो आगे बोले —
“सरकार ने कहा था कि इससे प्रदूषण 20% तक घटेगा। लेकिन AQI अब भी 400 से ऊपर है। आखिर जिम्मेदार कौन है?”
वैज्ञानिकों की सफाई
IIT कानपुर की टीम ने अपनी ओर से कहा कि “क्लाउड सीडिंग एक जटिल प्रक्रिया है और मौसम की स्थितियों पर निर्भर करती है।”
उनका कहना है कि तकनीक 100% सफल नहीं होती,
और कई बार मौसम का अंदाजा लगाने के बावजूद बादल अचानक हट जाते हैं।
उनका तर्क है —
“हमने प्रयास किया, लेकिन मौसम ने साथ नहीं दिया।”
हालांकि जनता के लिए ये बातें सिर्फ तकनीकी शब्द हैं।
क्योंकि आम आदमी के लिए सवाल बस इतना है —
“बारिश क्यों नहीं हुई?”
दिल्लीवाले अब भी धुंध में लिपटे हैं
क्लाउड सीडिंग की इस नाकामी के बाद भी, दिल्ली की हवा ज़हर बनी हुई है।
लोग सुबह मॉर्निंग वॉक के बजाय अब मास्क पहनकर घर के अंदर ही रहते हैं।
बच्चों की आंखें जल रही हैं, बुजुर्ग खांसते हुए ऑक्सीजन पर हैं,
और सरकारें अब भी एक-दूसरे पर उंगली उठा रही हैं।
“हमने कोशिश की” — ये वाक्य अब दिलासा नहीं देता।
क्योंकि कोशिशों का नतीजा हवा में घुलते ज़हर से साफ़ नहीं होता।
सवाल अब जनता का है
क्या दिल्ली सिर्फ प्रयोगशाला बनकर रह गई है?
कभी ऑड-ईवन, कभी स्मॉग टावर, अब क्लाउड सीडिंग —
हर बार करोड़ों का खर्च, पर हालात जस के तस।
सौरभ भारद्वाज का सवाल अब आम दिल्लीवाले का सवाल बन चुका है —
“किसकी जिम्मेदारी है ये?”
क्यों हर साल हम सांस लेने के लिए भी जूझते हैं?
और जब राहत की उम्मीद आती है, तो वो भी “फेल प्रोजेक्ट” बन जाती है?
आखिर में…
दिल्ली को बारिश चाहिए थी, राहत चाहिए थी —
पर जो बरसा, वो बस बयान और बजट था।
क्लाउड सीडिंग की असफलता ने ये साबित कर दिया कि
तकनीक से पहले ज़रूरत है ईमानदारी और जवाबदेही की।
क्योंकि अगर हर बार आसमान में उम्मीदें भेजकर सिर्फ खर्च ही नीचे गिरेगा,
तो एक दिन लोग भरोसा भी खो देंगे —
सरकार पर, विज्ञान पर, और सबसे ज़्यादा, अपने ही आसमान पर।

