छठ पूजा — आस्था, पवित्रता और शुद्धता का पर्व। यह त्योहार न सिर्फ सूर्य उपासना का प्रतीक है, बल्कि उस भाव का भी, जिसमें इंसान प्रकृति से अपने गहरे जुड़ाव को महसूस करता है। मगर इस बार दिल्ली के यमुना किनारे वो आस्था गंदगी और दुर्गंध के बीच डगमगाती नज़र आई। श्रद्धालु जो हर साल साफ-सुथरे घाटों पर सूर्य को अर्घ्य देने आते हैं, इस बार उन्हें कीचड़, प्लास्टिक और झाग से भरे पानी में पूजा करनी पड़ी।
सरकार की ओर से साफ-सफाई और व्यवस्थाओं के बड़े-बड़े दावे किए गए थे। कहा गया था कि इस बार छठ पूजा पर यमुना के घाटों को विशेष रूप से तैयार किया जाएगा। लेकिन जब श्रद्धालु पहुंचे, तो हकीकत कुछ और ही थी।
गंदे पानी में अर्घ्य देने को मजबूर श्रद्धालु
राजघाट, कालिंदी कुंज, मयूर विहार और वजीराबाद जैसे प्रमुख छठ घाटों पर श्रद्धालु सुबह-सुबह पहुंचे तो उनके पैर कीचड़ में धंस गए। कई जगह पानी इतना गंदा था कि उसमें उतरना भी मुश्किल हो गया। श्रद्धालु महिलाओं ने बताया कि उन्हें अपनी पूजा की थालियां बचाने के लिए प्लास्टिक बिछानी पड़ी।
पटना से आईं मीना देवी ने कहा, “हम तो छठ को सबसे पवित्र पर्व मानते हैं, लेकिन यहां की हालत देखकर मन रो पड़ा। यमुना में झाग तैर रहा है, बदबू इतनी कि सांस लेना मुश्किल। ये कैसी सफाई है जिसकी सरकार बात करती है?”
सरकार के दावे बनाम ज़मीन पर सच्चाई
दिल्ली सरकार और नगर निगम ने मिलकर इस बार छठ पर्व के लिए करीब 1500 घाट बनाने का दावा किया था। साथ ही कहा गया था कि सफाई, रोशनी और पानी की गुणवत्ता पर खास ध्यान दिया गया है। मगर श्रद्धालुओं की तस्वीरें और वीडियोज़ कुछ और ही कहानी बयां करते हैं।
स्थानीय लोगों का कहना है कि घाटों की सफाई केवल ऊपर-ऊपर की गई थी। कई जगहों पर दो-तीन दिन पहले तक निर्माण का काम चल रहा था, और पूजा के दिन तक व्यवस्था पूरी नहीं हो पाई।
एक स्थानीय युवक ने बताया, “सरकार के लोग फोटो खिंचवाने जरूर आते हैं, पर असली सफाई तो हम खुद करते हैं। घाट पर लाई गई रेत भी गंदी थी, जिससे जगह-जगह कीचड़ बन गया। महिलाएँ और बच्चे फिसलकर गिर रहे थे।”

श्रद्धा बनाम सिस्टम की लापरवाही
छठ पूजा में महिलाएँ नहाय-खाय से लेकर अर्घ्य देने तक हर नियम का पालन करती हैं। यह पर्व अनुशासन और पवित्रता का प्रतीक है। ऐसे में जब श्रद्धालु खुद गंदे पानी में पूजा करने को मजबूर हों, तो यह न सिर्फ व्यवस्था पर सवाल उठाता है बल्कि पूरे सिस्टम की असंवेदनशीलता को उजागर करता है।
रेखा, जो हर साल यमुना घाट पर छठ करती हैं, बताती हैं — “हर साल यही हाल रहता है। सरकार बस कहती है कि यमुना साफ हो रही है, लेकिन हम तो हर साल गंदगी में पूजा करते हैं। अब तो डर लगता है कि ये पानी कहीं हमें बीमार न कर दे।”
प्रदूषण और आस्था का संघर्ष
यमुना की हालत किसी से छिपी नहीं। झाग से ढकी नदी अब पूजा स्थल से ज़्यादा एक चेतावनी बन चुकी है — इंसान और प्रकृति के बीच बिगड़ते संतुलन की। पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि जब तक यमुना में गिरने वाले नालों और औद्योगिक कचरे को रोका नहीं जाएगा, तब तक कोई सफाई अभियान टिक नहीं सकता।
लेकिन विडंबना यह है कि हर साल छठ के वक्त सफाई के दावे किए जाते हैं, फोटो खींचे जाते हैं, और फिर सब कुछ वैसा ही रह जाता है।
“हम सिर्फ पूजा नहीं करते, संदेश भी देते हैं”
छठ मनाने वाले श्रद्धालु कहते हैं कि यह त्योहार सिर्फ पूजा नहीं, बल्कि पर्यावरण के प्रति आभार जताने का माध्यम है। मगर जब वही प्रकृति अस्वस्थ दिखती है, तो उनकी पीड़ा और बढ़ जाती है।
आस्था से भरी एक महिला ने कहा, “हम तो सूर्य देव से बस यही प्रार्थना करते हैं कि सरकार को थोड़ी समझ दे — ताकि अगली बार हम यमुना में नहीं, साफ पानी में पूजा कर सकें।”
निष्कर्ष
छठ का असली अर्थ है — पवित्रता, संतुलन और सच्ची निष्ठा। लेकिन जब श्रद्धा गंदगी में डूबने लगे, तो यह सिर्फ यमुना का नहीं, हमारी सोच का भी पतन है।
सरकार के लिए यह एक गंभीर संदेश है — सफाई और दिखावे के बीच फर्क समझने का। क्योंकि श्रद्धालु केवल प्रार्थना करने नहीं आते, वे अपनी आस्था का सम्मान देखने आते हैं।

