राजनीति इसीलिए इतनी मुश्किल होती है क्योंकि इसमे समझ ही नहीं आता कि कब बगल में खड़ा इंसान सामने चला जाता है और कब पार्टी का चेहरा रह चुका इंसान कौआ दिखने लगता है। दिल्ली भाजपा भी इससे अधूरी नहीं है। पार्टी छोड़ते ही उदित राज को लेकर ऐसा ही कुछ देखने को मिल रहा हूं।
राजनीति की खास बात यह है कि यहां कोई भी इंसान तभी तक अच्छा रहता है जब तक साथ रहता है। साथ छूटते ही सपनो का महल भरभरा कर गिर जाता है और फिर दिखती हैं तो बस कमियां। उत्तरी पश्चिमी दिल्ली से सांसद उदित राज के साथ भी ऐसा ही कुछ हो रहा है। पार्टी रहते हुए उन्हें सार्वजनिक मंच से दलितों का चिंतक कहा जाता था और अब पार्टी छोड़ते ही अनपढ़, धोखेबाज और कौआ तक कहा जा रहा है। खास बात ये है कि कहने वाला भी कोई ऐरा गैर नत्थू खैरा नही बल्कि भाजपा का लोकसभा चुनाव में दिल्ली से सह प्रभारी जय भान सिंह पवैया है।
अगर भाजपा नेताओं ने उदित के लिए बुरा कहा है तो उसकी वजह खुद उदित के बयान ही हैं। वहीं राजनीति का एक दस्तूर ये भी है कि यहां कोई भी लंबे समय तक दोस्त या दुश्मन नहीं रहता। ऐसे में देखने वाली बात ये होगी उदित और भाजपा के बीच बने नए रिश्ते में कब और क्या बदलाव आता है