देवेंद्र सिंह आर्य
कश्मीर को लेकर आज के सत्ताधीश पूर्णत: असफल सिद्घ हो चुके हैं। उनकी कश्मीर नीति उनकी एक कमजोर शासक की छवि बना चुकी है। जब वह कहते हैं कि कश्मीर समस्या को वह सुलझा लेंगे तो लोगों को उनकी बात पर विश्वास नहीं होता। किसी भी राजनीतिज्ञ के लिए वह सबसे अधिक खतरनाक बात होती है कि वह जो कुछ कहता है उस पर लोग विश्वास न करें, और वर्तमान शासकों के बारे में देश के जनमानस में यह धारणा घर कर गयी है कि वह जो कुछ कह रहे हैं वह पूर्ण होने वाला नहीं है। बेशक 5 अगस्त 2019 को धारा 370 और 35a भारतीय संविधान से समाप्त कर दी गई हों लेकिन उसके बाद भी बहुत कुछ करना शेष है।
इतना संतोष अवश्य किया जा सकता है कि आतंकवादी घटना में कुछ कमी आई है। परंतु भारतीय जनमानस को जो वर्तमान सत्ताधारियों से अपेक्षा थी जिस पर वह पूरी तरीके से खरे नहीं उतरे।
कश्मीर में आज भी हिंदुओं की हत्या आतंकवादियों द्वारा की जा रही है।भाजपा शासन चाहे कितनी अपनी पीठ थपथपा ले लेकिन आतंकवादी घटनाएं कश्मीर में रुकने का नाम नहीं ले रही हैं।
कश्मीर के संबंध में जब-जब चर्चाएं चलती हैं, बहस होती है या राजनीति में गरमाहट आती है तो समय की सुइयां पुन: 1947 की ओर घूम जाती हैं, और हम सबके अंतर्मन पर कुछ परिचित से नाम पुन: घूमने लगते हैं। इन नामों में सरदार वल्लभभाई पटेल, महाराजा हरिसिंह, पंडित जवाहरलाल नेहरू, शेख अब्दुल्ला, लियाकत अली, मौ. अली जिन्नाह, लार्ड माउंटबेटन के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। भारतवर्ष में कश्मीर के संबंध में ही नही, देशी रियासतों को भारत के साथ विलय करने के मुद्दे पर सरदार पटेल का नाम सर्वाधिक सम्मान के साथ लिया जाता है।
निस्संदेह सरदार पटेल ने अपने दृढ़ निर्णयों और स्पष्टवादिता से एक नही अनेक बार सिद्घ किया कि वह इस सम्मान के पात्र भी हैं। उनको पं. नेहरू ने गृह मंत्रालय के साथ-साथ सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय तथा राज्यों संबंधी विषयों को भी दिया। इन सारे दायित्वों को सरदार पटेल ने जिस कर्तव्यनिष्ठा से निर्वाह किया उससे उन्हें ‘भारत का बिस्मार्क’ होने का सम्मान पश्चिमी प्रेस ने दिया।
1947 ई. में लार्ड माउंटबेटन को हमने अपना ‘बादशाह’ बनाकर रख लिया। यह हमारे तत्कालीन नेतृत्व की भूल थी क्योंकि माउंटबेटन के चर्चिल और टोरी पार्टी से बड़े घनिष्ठ संबंध थे। सभी जानते हैं कि चर्चिल एक कट्टर भारत विरोधी नेता था और वह हर स्थिति में भारत को विनष्ट होता देखना चाहता था। इसलिए माउंटबेटन जब भी उससे (स्वतंत्रता के पश्चात भी) भारत और कश्मीर के विषय में परामर्श लिया करता था, तो चर्चिल माउंटबेटन को ऐसे परामर्श ही दिया करता था जिससे भारतीय उपमहाद्वीप में और आग लगे, और माउंटबेटन उस परामर्श के अनुसार अपनी कथित ‘पत्नी के मित्र पं. नेहरू’ को मोडऩे या तोडऩे का प्रयास करता था। इस प्रकार कश्मीर के संबंध में दिखने वाले मोहरों के स्थान पर पीछे से एकअदृश्य शक्ति (चर्चिल) डोर हिला रही थी, और हम यहां कठपुतलियों को नाचते देख रहे थे।
नेहरू नाम की कठपुतली ने उस अदृश्य शक्ति की परामर्श पर निर्णय लिया और सरदार पटेल से राज्यों संबंधी मामलों में से कश्मीर को अपने पास रख लिया। सरदार पटेल सारे घटनाक्रम पर बड़ी सावधानी से दृष्टि गढ़ाये बैठे थे, उन्होंने कश्मीर को नेहरू को सौंप दिया, परंतु इसके उपरांत भी सावधान और जागरूक बने रहे। क्योंकि वह जानते थे कि कश्मीर के विषय में महाराजा हरिसिंह, पं. नेहरू, लियाकत अली, मौ. अली जिन्नाह सभी की मानसिकता दूषित थी। महाराजा हरिसिंह ने 26 सितंबर 1947 को माउंटबेटन को एक पत्र लिखा था और उसमें उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि कश्मीर की सीमाएं सोवियत रूस व चीन से भी मिलती हैं और भारत तथा पाकिस्तान से भी अत: उसे स्वतंत्र राज्य माना जाए। संभवत: यह दोनों देशों (भारत तथा पाकिस्तान) तथा अपने राज्य के हित में रहेगा,-यदि उसे स्वतंत्र रहने दिया। इस प्रकार महाराजा ‘अपना काम’ निकालने की प्रतीक्षा में थे।
सरदार पटेल इस तथ्य को जानते थे, परंतु जब 20 अक्टूबर 1947 को महाराजा हरिसिंह भारत के साथ आने पर,विलय करने पर सहमत हो गये तो सरदार पटेल भी ईमानदारी से और एक रणनीति के तहत महाराजा के साथ हो लिये। वैसे भी कश्मीर के विषय में उस समय महाराजा ही सबसे अधिक विश्वसनीय और मजबूत कड़ी हो सकते थे।
सरदार पटेल शेख अब्दुल्ला को कतई मुंह नही लगाते थे, क्योंकि वह ऐसा व्यक्ति था जो नीचे से ऊपर तक भारत के प्रति विष से भरा हुआ था। इसलिए शेख की हर गतिविधि पर पटेल बड़ी पैनी दृष्टि रखते थे। शेख भी सरदार पटेल के सामने घबराता था और कितने ही अवसरों पर पटेल के सामने उसकी बोलती बंद हो गयी थी। ‘सरदार पटेल : कश्मीर एवं हैदराबाद’ के लेखक द्वय पी.एन. चोपड़ा एवं प्रभा चोपड़ा लिखते हैं कि सरदार पटेल की चेतावनी थोड़े शब्दों में ही होती थी, किंतु वे अपनी बात समझाने में काफी प्रभावकारी होते थे। कश्मीर पर वाद विवाद के समय शेख अब्दुल्ला क्रोधित होकर एक बार संसद से बाहर चले गये। सरदार पटेल ने अपनी सीट से बैठे-बैठे ही उधर देखा। उन्होंने सदन के एक वयोवृद्घ व्यक्ति को बुलाकर कहा-‘(शेख को बता दो कि) शेख संसद से तो बाहर जा सकते हैं, किंतु दिल्ली से बाहर नही जा सकते।’ इस चेतावनी ने शेख को भीतर तक हिला दिया था, और वह तुरंत अपनी सीट पर आकर बैठ गये।
सचमुच सरदार पटेल जैसे नेता किसी देश को सौभाग्य से ही मिलते हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने देश की संसद के भीतर जिन स्पष्ट शब्दों में कहा था कि हम देश की जनता के आक्रोश को समझते हैं और इस विषय में हम देश के साथ हैं। हम मानते हैं कि वर्तमान पी.एम. के इन शब्दों में बनावट नहीं थी और इन शब्दों का प्रभाव भी यह हुआ कि कश्मीर का नेता मुफ्ती मौहम्मद सईद ‘अपनी सीट पर बैठता नजर आया।’ यद्यपि श्री मोदी ने मुफ्ती को कश्मीर सौंपकर जो गलती की उससे उन्हें कटु आलोचना का शिकार होना पड़ा और देश को पर्याप्त क्षति भी उठानी पड़ी है।
सरदार पटेल का ही एक अन्य प्रकरण वर्तमान नेतृत्व का मार्गदर्शन कर सकता है। कश्मीर में सेना भेजने के निर्णय पर बक्शी गुलाम मौहम्मद ने बड़ा रोचक वर्णन किया है। दिल्ली में इस संबंध में होने वाली बैठक में बक्शी गुलाम मौहम्मद के अतिरिक्त लॉर्ड माउंटबेटन, सरदार वल्लभभाई पटेल, रक्षामंत्री सरदार बलदेव सिंह, जनरल बुकर, कमाण्डर इन चीफ जनरल रसेल, आर्मी कमाण्डर उपस्थित थे। बैठक की अध्यक्षता लार्ड माउंटबेटन कर रहे थे। कश्मीर में सेना भेजने और उसे भारत के साथ रखने पर ही विचार होना था। जनरल बुकर और अन्य सभी लोग अपनी बातों से बैठक में निराशा के परिवेश का निर्माण कर रहे थे। उनकी बातों से लगता था कि जैसे वे कश्मीर की जीती हुई बाजी को हार रहे हैं। बुकर ने कहा कि उनके पास संसाधन इतने थोड़े हैं कि राज्य को सैनिक सहायता दी जानी संभव नही है, लॉर्ड माउंटबेटन ने निरूत्साहपूर्ण झिझक दिखायी। पंडित जी ने तीव्र उत्सुकता एवं शंका प्रकट की।
परंतु लौहपुरुष सरदार पटेल सबको मौन रहकर सुनते रहे, एक शब्द भी नही बोले। वह शांत और गंभीर प्रकृति के थे ।उनकी चुप्पी पराजय और असहाय स्थिति जो बैठक में परिलक्षित हो रही थी, के बिल्कुल विपरीत थी। सहसा सरदार अपनी सीट पर हिले और तुरंत कठोर एवं दृढ़ स्वर से सबको अपनी ओर आकर्षित किया। आज की सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी के अंदर सरदार पटेल जैसी दूरदर्शिता और साहसिक निर्णय लेने की क्षमता का सर्वथा अभाव है।
सरदार पटेल प्रधानमंत्री नेहरू से कई गुना व्यवहारिक दृष्टिकोण अपनाते थे। वह चीन के प्रति कभी भी आश्वस्त होकर बैठने वाले नहीं थे ।वह साम्राज्यवादी चीन से भारत को सुरक्षित रखने के पक्षधर थे। यह चाहते थे कि वह चीन से माथे पर सरवटे डालकर बातें की जाती रहे। उससे कभी भी हंस कर बातें नहीं करनी है। और गलबहियां तो कतई नहीं करनी है। पर नेहरु जी ने चीन से दूसरी नीति पटेल की नीति के विपरीत अपनाई। उन्होंने चीन को बड़ा भाई माना और उसके प्रति अपने चेहरे की गंभीरता को समाप्त कर उससे हंस-हंसकर बातें करते-करते 1954 में संपन्न हुए पंचशील समझौते के समय तो वहीं आकर बैठे चीन ने अपने समक्ष आत्मसमर्पण कर चुके इसी नेहरू के भारत की 1962 में पिटाई कर दी। तब नेहरू जी को लगा कर धोखा हो गया। यदि उसमें सरदार पटेल होते तो अवश्य कहते कि नेहरू जी धोखा नहीं है अपितु धोखे की मेज पर धोखा खाने के लिए स्वयं ही जा बैठे।