दवा के फुटकर-थोक विक्रेता, डॉक्टरों और कंपनियों का ऐसा गठजोड़ है कि दवा बाजार तरक्की की सीढ़ियां चढ़ रहा है। हाल यह है कि शिखर पर पहुंचने के लिए बीमारों की जेब से धन निकाल कर बंदरबांट किया जा रहा है। मेडिकल बाजार में अंकुश न होने के कारण मनमानी ऐसी है कि जो साल्ट नौ रुपये में 10 गोली मिल जाती है, उसे नब्बे रुपये में ब्रांडेड का टैग देकर बेचा रहा है। लगातार बढ़ रहे इस बाजार का तिलिस्म ऐसा है कि इस पर न तो सरकार अंकुश लगा पाई और ना ही अधिकारी। अंधेर तो यह है कि जब अफसर भी बीमार होते हैं तो उन्हें भी ब्रांडेड दवा ही खरीदनी पड़ती है।
प्रियंका ‘सौरभ’
डॉक्टरों को दवा कंपनियों की तरफ से मिलने वाले उपहारों को लेकर सुप्रीम कोर्ट एक याचिका की सुनवाई कर रही है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा है। दवाओं की बिक्री को लेकर कंपनियों और डॉक्टरों की गठजोड़ को लेकर एक याचिका में ऐसा दावा किया गया है जिसे सुनकर खुद जज भी हैरान है। याचिका में कहा गया है कि डॉक्टर किसी खास दवा को प्रिस्क्राइब करने के लिए कंपनी डॉक्टरों को करोड़ों रुपए के उपहार देती है उदाहरण के तौर पर अक्सर बुखार में दी जाने वाली एक कंपनी की दवा की बिक्री बढ़ाने के लिए डॉक्टरों को 1 हजार करोड़ रुपये के उपहार दिए गए ताकि उनकी दवा का प्रमोशन हो। इस याचिका में कहा गया है कि जो डॉक्टर उपहार लेकर दवा की सलाह देते हैं, उन्हें इसके लिए जिम्मेदार भी होना चाहिए।
दवा के फुटकर-थोक विक्रेता, डॉक्टर और कंपनियों का ऐसा गठजोड़ है कि दवा बाजार तरक्की की सीढ़ियां चढ़ रहा है। हाल यह है कि शिखर पर पहुंचने के लिए बीमारों की जेब से धन निकाल कर बंदरबांट किया जा रहा है। मेडिकल बाजार में अंकुश न होने के कारण मनमानी ऐसी है कि जो साल्ट नौ रुपये में 10 गोली मिल जाती है, उसे नब्बे रुपये में ब्रांडेड का टैग देकर बेचा रहा है। लगातार बढ़ रहे इस बाजार का तिलिस्म ऐसा है कि इस पर न तो सरकार अंकुश लगा पाई और ना ही अधिकारी। अंधेर तो यह है कि जब अफसर भी बीमार होते हैं तो उन्हें भी ब्रांडेड दवा ही खरीदनी पड़ती है।
अगर इस तरह का काम किया जाता है तो ना केवल दवा के ओवर यूज के केस बढ़ेंगे बल्कि इससे मरीजों के स्वास्थ्य पर भी विपरीत असर पड़ सकते हैं। इस तरह के घोटालों से मार्केट में दवाओं की कीमत और बिना मतलब की दवाओं की भी समस्या पैदा होती है। हो सकता है कि कोरोना महामारी के समय ऐसी दवाओं का ज्यादा ही प्रमोशन किया गया और अनैतिक तरीके से मार्केट में सप्लाई किया गया। दवा कंपनी और डॉक्टरों के बीच की सांठगांठ़ फार्मा कंपनियों द्वारा अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के लिए डॉक्टरों को रिश्वत और प्रलोभन के माध्यम से बढ़ती जा रही है। चिकित्सा प्रतिनिधियों ने यह भी उद्धृत किया कि केवल 10-20% डॉक्टर ही एमसीआई आचार संहिता का पालन करते हैं, जबकि कुछ मामलों में डॉक्टर किसी उत्पाद को आगे बढ़ाने के लिए “प्रोत्साहन” की भी मांग करते हैं। न केवल एलोपैथी, बल्कि आयुर्वेदिक और होम्योपैथिक कंपनियों के चिकित्सा प्रतिनिधियों ने उच्च बिक्री लक्ष्यों को पूरा करने के लिए भारी दबाव में होने की बात कही है।
रिपोर्ट में चिकित्सा प्रतिनिधियों का हवाला देते हुए कहा गया है कि कंपनी के अधिकारी डॉक्टरों द्वारा उत्पन्न व्यवसाय की निगरानी भी करते हैं, जिन पर उन्होंने ‘निवेश’ किया है। फार्मा कंपनियां चिकित्सा प्रतिनिधियों के लिए प्रशिक्षण कार्यशालाएं या सत्र आयोजित कर रही हैं, जो वे जिस उत्पाद को संभाल रही हैं, उसके बारे में अपने तकनीकी ज्ञान को बढ़ाने के बजाय, बिक्री कौशल और ‘ग्राहक (डॉक्टरों) संबंधों के प्रबंधन’ पर अधिक ध्यान केंद्रित कर रही हैं। रिपोर्ट में एक नए चलन का भी उल्लेख किया गया है – प्रचार-सह-वितरण कंपनियां इन दिनों नई संस्थाएं बनाती हैं जो फार्मा कंपनियों की फ्रेंचाइजी हैं जो निर्माताओं से थोक में दवाएं खरीदती हैं, अपने खुद के ब्रांड नाम देती हैं और उन्हें सीधे खुदरा विक्रेताओं और डॉक्टरों को उपहार, नकद, आतिथ्य और यात्रा सुविधाओं सहित छूट और प्रोत्साहन पर बेचती हैं।
डॉक्टरों के लिए मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया में एक आचार संहिता है जो उन्हें फार्मा कंपनियों से कोई उपहार, नकद, यात्रा सुविधाएं या आतिथ्य स्वीकार करने से रोकती है। हालांकि फार्मास्युटिकल कंपनियों के लिए एक स्वैच्छिक कोड है जिसे यूनिफॉर्म कोड ऑफ फार्मास्युटिकल मार्केटिंग प्रैक्टिस या यूसीएमपी के रूप में जाना जाता है, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि प्रचलित कदाचार की जांच के लिए एक बहुत प्रभावी तंत्र नहीं है। चिंताजनक बात यह है कि अनैतिक आचरण के दोषियों को दंडित करने के लिए कोई कानून नहीं है। नतीजा मरीज महंगी दवा खरीदने को मजबूर हैं। केंद्र सरकार अभी भी फार्मा कंपनियों के लिए एक समान मार्केटिंग प्रैक्टिस कोड लागू करने के 2015 के प्रस्ताव पर बैठी है, जिसमें कड़े दंड का प्रावधान है।
डेढ़ साल पहले, आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत अनैतिक प्रथाओं पर शासन करने के लिए कानून मंत्रालय को भेजे गए नियामक संहिताओं के एक प्रारूप को खारिज कर दिया गया था। फिर भी, स्वास्थ्य मंत्रालय ने सूचना के अधिकार रिपोर्ट के जवाब में कहा कि मसौदे पर चर्चा की जा रही है स्वास्थ्य के लिए खतरा उन लाखों लोगों के लिए है, जो स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हो सकने वाली दवाओं को धकेलने वाले तर्कहीन नुस्खे का शिकार हो जाते हैं। एंटीबायोटिक दवाओं का बढ़ता उपयोग रोगाणुरोधी प्रतिरोध का मुख्य कारण है, जो दुनिया के सबसे बड़े स्वास्थ्य खतरों में से एक है। बैक्टीरिया समय के साथ स्वाभाविक रूप से दवाओं के लिए प्रतिरोध विकसित करते हैं, सुपरबग बन जाते हैं, लेकिन बड़े पैमाने पर या अनुचित उपयोग इस प्रक्रिया को नाटकीय रूप से तेज करते हैं।
फार्मा कंपनियों की ओर से अनैतिक प्रचार को पहचानने और दंडित करने के लिए एक अनिवार्य कोड की आवश्यकता है। दवा के प्रचार पर होने वाले खर्च का दवा कंपनियों द्वारा अनिवार्य खुलासा, सतत चिकित्सा शिक्षा में दवा संबंधी सामग्री की जांच, स्वास्थ्य देखभाल सिर्फ एक उपभोक्ता उत्पाद नहीं है। ये उससे अधिक है। रोगियों को पहले रखने के आदर्श हमारी संस्कृति में निहित हैं। यह एक बड़ी कमी है जब बड़ी स्वास्थ्य प्रणालियों, फार्मास्युटिकल कंपनियों, डिवाइस कंपनियों और बीमा कंपनियों के कार्यों का रोगियों पर व्यक्तिगत चिकित्सकों के कार्यों की तुलना में अधिक प्रभाव हो सकता है।
इस साठगांठ की समस्या से निपटने के लिए नया कानून लाने की सख्त जरूरत है, जिसके तहत दवा कंपनियों को डॉक्टरों को ‘शोध, लेक्चरों, सफर और मनोरंजन के लिए दी जाने वाली राशि का खुलासा करना जरूरी होगा। एक ऐसी नैतिक संहिता की भी बात हो, जिसके तहत फार्मा कंपनियां डॉक्टरों को किसी भी तरह का उपहार, धन या दूसरी तरह के फायदे अपनी दवाइयों को बढ़ावा देने के लिए नही दे सकें और न ही वे ऐसी जगहों पर बैठकों या सम्मेलनों का आयोजन करें, जो मनोरंजन, खेल के आयोजनों या मौज मस्ती और अवकाश देने से जुड़ी हों। अनैतिक तरीके अपनाने पर सजा देने की जरूरत पर भी जोर हो। डॉक्टरों और फार्मा कंपनियों की इस अनैतिक साठगांठ को तोड़ने के लिए केवल कानून ही कारगर हो सकता है। दूसरी ओर जन औषधियों को बढ़ावा देने के साथ-साथ जागरूकता अभियान चलाए जाने की भी जरूरत है, जिससे मरीजों को उपचार के नाम पर न तो लूटा ही जा सके और न ही उनके स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़े।
(लेखिका रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)