देवेंद्र सिंह आर्य
यज्ञ, याग एवं याज्ञिक दृष्टि क्या है?
यज्ञ की अनिवार्यता क्यों?
याग का अधिपति कौन हैं?
परमात्मा का स्वरूप कैसा है?
विज्ञान कितने प्रकार की होती है?
जड़ चेतन का स्वरूप क्या है?
ब्रह्मांड एवं पिंड क्या है?
पुरोहित किसे कहते हैं?
विद्या कितने प्रकार की होती है?
उक्त समस्त प्रश्नों का उत्तर एक साथ देते हैं।
चेतन सृष्टि की उत्पत्ति।
इस सृष्टि की उत्पत्ति का प्रधान कारण जीवों के कर्म और परमेश्वर का न्याय है। जीव अनादि काल से कर्म करते हुए चले आ रहे हैं। और परमात्मा भी अनादि काल से उनको कर्म फल देता हुआ चला आ रहा है। इसलिए प्रत्येक प्रलय के बाद नवीन सृष्टि होती है। और जब सूर्य चंद्र और पृथ्वी आदि की रचना हो जाती है तब पृथ्वी के अनुकूल हो जाने पर अर्थात जीव धारियों के रहने लायक होने पर परमात्मा जीवो के शेष कर्मों के अनुसार(अर्थात जो पहली सृष्टि में शेष कर्मफल रह गया था के अनुसार) उनको नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न करता है ( मनुस्मृति 1 / 28)
अर्थात परमात्मा ने जिस योनि के योग्य समझा उस के कर्मानुसार उसको उसी योनी में न्यायिक रूप से उत्पन्न किया।
जड़ सृष्टि से चेतन सृष्टि का संबंध।
प्रकृति जीव और ईश्वर तीनों अनादि हैं तीनों की प्रथक प्रथक सत्ता है। तीनों ही जगत के कारण हैं। ये तीन नहीं तो जगत नहीं। ये तीन हैं तो जगत है। यह तीनों पूर्व से ही विद्यमान रहते हैं। इनका निर्माण अथवा नाश नहीं होता।
क्योंकि ईश्वर प्रकृति के सत ,रज और तम तीन तत्वों को लेकर महत्व( बुद्धि) का सृजन करते हैं। बुद्धि से अहंकार का निर्माण होता है। अहंकार से 16 तत्व का निर्माण होता है। पांच ज्ञानेंद्रियां पांच प्राण (जिनको पांच कर्मेंद्रियां भी कहते हैं)पांच सूक्ष्म भूत और एक मन। इस प्रकार यह 18 तत्व होते हैं। 5 सूक्ष्म भूत से पांच स्थूल भूत (अग्नि, जल ,आकाश, पृथ्वी और वायु )का निर्माण होता है। इस प्रकार कुल 23 तत्व हो गये। 24वी मूल प्रकृति है। इस 24 के संघात से( समुच्च से) पिंड का निर्माण होता है। इस पिंड के साथ 25वा आत्मा का सन्योग होने पर जीवधारी कहलाने लगता है। 25 वी आत्मा को कुछ समय के लिए यदि छोड़ दिया जाए और यह मान ले कि केवल 24 तत्व का पिंड अथवा शरीर है तो यही 24 तत्व ब्रह्मांड में भी पाए जाते हैं । इस प्रकार जितना भी विशाल ब्रह्मांड है एवं पिंड है वह प्रकृति जन्य है। इसलिए प्रकृति जन्य होने के कारण पिंड और ब्रह्मांड दोनों ही नाशवान है। ब्रह्मांड का मतलब समस्त विश्व या जगत।
हम देखते हैं कि पिंड और ब्रह्मांड के मूल तत्व प्रकृति जन्य है। दोनों में कारण समान है। दोनों के तत्व समान हैं। दोनों ही जड हैं।
इसी आधार पर यह कहा जाता है कि जो ब्रह्मांड में वही पिंड में है जो पिन्ड में है वही ब्रहमांड में है।
हमारा यह सौर जगत विशाल एवं विराट है ।इस विराट का सिर द्युलोक अर्थात सूर्यस्थानी आकाश है ,नेत्र सूर्य हैं, प्राण हवा है, पेट विद्युत और मेघ हैं, और पैर पृथ्वी है ।पृथ्वी से लेकर आकाश तक इस विराट के खड़े आकार का यह रूप मनुष्य के खड़े शरीर के साथ मिल जाता है अर्थात मनुष्य का सिर द्युलोक की ओर और पैर पृथ्वी की ओर ही हैं । वह भी विराट की भांति खड़े शरीर वाला ही है ।इसका कारण विराट और मनुष्य का पिता -पुत्र संबंध ही है।
समस्त ब्रह्मांड अपनी आश्चर्यमय कलापूर्ण एवं रहस्यमयी रचना से पूर्ण है। अतः समस्त ज्ञान-विज्ञान का वह अक्षय भंडार है। और ज्ञान-विज्ञान प्राप्त करने का क्रियात्मक क्षेत्र भी है। इस अनंत आकाश में घूम कर न जाने मानव किन-किन आश्चर्यमय बातों का पता दे सकेगा परंतु जब हम वेदों को देखेंगे तो वह ज्ञान राशि उसमें एक शब्द में ओतप्रोत प्राप्त हो जाएगी। हमारे ज्ञान की रश्मियों को यदि हम वेद में केंद्रित कर दें तो वेद से ज्ञान ज्योति का उद्गम होकर हम विश्व को दैवी दृष्टि एवं ज्ञान से देख सकेंगे ।यह ज्ञान का अनुलोम मार्ग है। परंतु वर्तमान विज्ञान प्रतिलोम मार्ग से चल रहा है। वेद से उसने अपना संबंध छोड़ रखा है। वह इस अनंत आकाश में घूम रहा है। एक उन्मत्त की भांति उद्देश्य हीन होकर केवल कुछ अद्भुत एवं अज्ञात की प्राप्ति में संलग्न है। परंतु इस प्रकार विश्व के रहस्यों का अंत वह प्राप्त नहीं कर सकेगा।
वह परमपिता परमात्मा पिंड रूप में भी और चेतना में भी रत रहने वाले हैं। क्योंकि पिन्ड एवं ब्रह्मांड का रचयिता एक ही है। जो रचयिता है वह सर्वत्र व्याप्त है, कण-कण में व्याप्त है। तो वह पिंड में भी व्याप्त है और ब्रह्मांड में भी व्याप्त है।हमारे आचार्यों ने, ऋषियों ने ,मुनियों ने इस ब्रह्मांड के ऊपर बड़े बड़े अनुसंधान किये हैं। एक एक वस्तु को उन्होंने बड़ी गंभीर मुद्रा में पिंड और ब्रह्मांड में निहित कर दिया है ।विचार वेत्ताओं ने अपने तक ही इस संसार को सीमित नहीं बनाया बल्कि इसका जो सृष्टिकर्ता है वह परमपिता परमात्मा और इस ब्रह्मांड को भोगतव्यं रूप में यह मानव अपने में ही निहित और अपने में ही रत होता रहा है।
जिस प्रकार प्राणियों का जड़ सृष्टि के साथ घनिष्ठ संबंध है। उसी प्रकार उनका आपस में भी घनिष्ठ संबंध है। परमपिता परमात्मा जीवो के कर्मानुसार प्राणियों के शरीर बनाता है और दंड भोग के साथ-साथ दुख देने वाले से दुख प्राप्त को प्रतिफल भी दिलाता है ।यह प्रतिफल एक प्रकार का ऋण होता है। यही कारण है कि अनाचारियों और अत्याचारियों की ज्ञानेंद्रियां और कर्म इंद्रियों को सीमित करके वह उनको इस प्रकार बना देता है कि वह आसानी से उत्कृष्ट इंद्रिय प्राणियों के काबू में आ जाते हैं। और उनका भोग्य बन कर ऋण चुकाते रहते हैं। यही कारण है कि भोग पहले और भोक्ता उनके बाद उत्पन्न होते हैं।
हम उस परमपिता परमात्मा को अपने में धारण करके उसका दिग्दर्शन करते हैं। जिससे अपने में सीमित न रह करके एवं विचार वेत्ता बन करके इस संसार सागर से पार हो जाए।
वेदों के मंत्र इसके लिए हम को प्रेरित करते हैं।
आर्यों का विश्वास है कि आदि सृष्टि के समय मनुष्य को परमात्मा की ओर से ज्ञान की प्रेरणा हुई वहीं ज्ञान वेद है।
वेदों में वैदिक धर्म का स्वरूप यज्ञ को माना गया है। यज्ञो में आयुर्वेद, ज्योतिष, भौगोलिक ज्ञान ,वास्तु शास्त्र, गणित, पदार्थ विज्ञान, कला कौशल, कृषि और पाक शास्त्र, पशु पालन और चर भूमि, सार्वभौम राज्य, ललित कला, व्याकरण, स्वर विद्या और लिपि कला तथा संसार की तुष्टि भी यज्ञ से है। वेद अपौरुषेय हैं।
वेदों की रचना आर्यावर्त में हुई और विद्या का प्रचार प्रसार भी आर्यवर्त से हुआ। जो आर्यावर्त का गौरव है। वेद सदा से पथ प्रदर्शक रहे हैं। वेदों के अंदर शाश्वत वैदिक विज्ञान समाहित है। वेदों के अंदर यज्ञ की निस्वार्थ भावना का संचार है। यज्ञ से इदं न मम की भावना का उदय होता है। यज्ञ से जीवन को यज्ञमयी बनाया जा सकता है।
इस ब्रह्मांड में सर्वत्र यज्ञ का क्रम चल रहा है। इस विशाल भूमि में, इस अंतरिक्ष में और द्युलोक में सर्वत्र अणु से लेकर उत्तरोत्तर निर्मित पिन्डो में यज्ञ चल रहे हैं। और वे सब एक विशाल यज्ञ को संपन्न कर रहे हैं ।जब परमात्मा ने सृष्टियज्ञ को किया तो वसंत ऋतु ने घृत का कार्य किया ।उसने इस यज्ञ को प्रदीप्त करने के लिए सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ में उनके परमाणुओं में और तेज प्रदान किया। प्रकृति में सर्वत्र एक उन्माद सा, एक आनंद सा भर गया। प्रत्येक वृक्ष वनस्पति ने अपना श्रेष्ठतम पराग ,सुगंध, रूप, मधु अपने में से उगल कर विश्व यज्ञ के लिए अर्पण कर दी ।मधु वाता ऋतायते (यजुर्वेद 13 बटा 27 )का रूप चरितार्थ होने लगा। अंतरिक्ष स्थित समुद्र भी उस से प्रेरित होकर मधुरिमा का क्षरण करने लगा। जिससे मधु क्षरन्ति सिन्धु :(यजुर्वेद 13 बटा 27) सार्थक होने लगा ।उसमें ग्रीष्म ने भी अपना योगदान किया। उसने अपनी प्रचंड उष्णता को समिधा का रुप प्रदान करके उसी को समर्पित की । सृष्टि के अंग प्रत्यन्गो में शक्ति की प्रचंडता भर दी ।शरद ने नवीन नवीन औषधियों को परिपक्व करके हवि का रुप प्रदान किया। इस प्रकार उस परम पुरुष के द्वारा रचे हुए सत्य का निरूपण हुआ है। इस प्रकार विश्व की रचना में सर्वत्र यज्ञ ही यज्ञ है।
यज्ञं पुरौहितां ब्राह्मणा वृत्ति देवा: अर्थात परमपिता परमात्मा ब्राह्मण है अर्थात परमपिता परमात्मा पुरोहित है। वह पुरोहित बन करके हमारा कल्याण कर रहे हैं। जैसे परा विद्या को धारण करने वाला पुरोहित राष्ट्र समाज और मानव को ऊंचा बनाता रहता है। इसी प्रकार व परमपिता परमात्मा पुरोहित हैं, जो हमारा पालन भी कर रहा है और हमें नाना प्रकार की प्रेरणा देकर के नाना प्रकार के ज्ञान में हमें रत करके नाना प्रकार की आभाओं से आभूषित कर रहा है। इसलिए परमपिता परमात्मा को पुरोहित कहते हैं जो हमको परा विद्या को प्रदान करता है। विद्या दो प्रकार की होती है अपराविद्या और परा विद्या।
हम परमपिता परमात्मा को परा विद्या में स्वीकार करते हैं।
जैसे एक यज्ञशाला में यजमान के समीप पुरोहित विद्यमान होकर के नाना पराविद्याओं को प्रेरित करता हुआ अपने मानं ब्रह्मा वृत्ते याग को ऊंचा बनाता है ।इसी प्रकार वह परमपिता परमात्मा इस संसार रूपी यज्ञशाला को, इस संसार रूपी याग को ऊर्ध्वा में ले जाते हैं। इसीलिए परा विद्या में रहने वाले पुरोहित माने गए हैं। इस प्रकार उस परमपिता परमात्मा को हम परा विद्या के रूप में स्वीकार करते हैं,तथा उसको पुरोहित भी कहते हैं।
ईश्वर अजब रचनाकार है।
वेद के मंत्र उस परमपिता परमात्मा को यज्ञमयी स्वरूप में स्वीकार करते हैं। परमपिता परमात्मा यज्ञमयी स्वरूप माने गए हैं। इस याग को अवर्णं बृह्मे ब्रह्मांड और पिंड दोनों का समन्वय किया है। परमपिता परमात्मा पराविद्या को हमें प्रदान करने वाले हैं। वे यज्ञोमयी स्वरूप हैं ,क्योंकि याग उसका आयतन है। उसका ग्रह है। वह याग में परिणत रहने वाले हैं ।यह जो संसार है यह एक प्रकार की यज्ञशाला है ।इस यज्ञशाला में प्रत्येक प्राणी याग कर रहा है। प्रत्येक मानव याग करता हुआ परमपिता परमात्मा को यज्ञमयी स्वीकार करते हुए इस सागर से पार होने की मानव कल्पना करता है कि मैं इस संसार से पार हो जाऊं। इससे मैं उर्ध्वागति को प्राप्त हो जाऊं।
जब परमपिता परमात्मा सृष्टि की रचना करते हुए अपने ही रूप में धारण करता है तो यह ब्रह्मांड एक यज्ञशाला के रूप में दृष्टिपात होने लगता है। पिंड और ब्रह्मांड दोनों को एक ही स्वरूप देते हुए इसको भिन्न-भिन्न रूप नहीं देना एक में ही देखना अनेका रूपां ब्रह्मणम वृत्ते अर्थात एक से अनेक रूप से यह ब्रह्मांड देखने में आता है । जब इसको हम अपने में समेट लेते हैं तो मानो अनेकता से एकता में यह दृष्टिपात होने लगता है। इसी प्रकार यह ब्रह्मांड और पिंड उस परमपिता परमात्मा के यज्ञमयी स्वरूपता माने गए हैं।
यह संसार ईश्वर का याग है ।मानव के सुविचार भी एक याग माने गए हैं ।इसलिए हमें यज्ञशाला में आसीन होकर के यज्ञ में परिणत हो जाना चाहिए।
यह यज्ञ अनिवार्य है।
याग के संबंध में विशेष विचार विनिमय ऋषि-मुनियों में होता रहा है।
यह याग क्या है? और उसका अधिपति कौन है ?
इसके लिए हमारे ऋषियों ने बताया है कि परमपिता परमात्मा इसका अधिपति है। वह परमपिता परमात्मा के द्वारा ही एक विशाल क्रियाकलाप है। जिस कर्मकांड की आभा में ब्रह्म वेत्ता अपने में ब्रह्म का चिंतन करते रहते हैं और ब्रह्म को अपने में दृष्टिपात करते रहते हैं विज्ञान वेत्ता भी यही कहते हैं और आध्यात्मिक विज्ञान वेत्ता भी यही कहते हैं।
एक भौतिक विज्ञान होता है और दूसरा आध्यात्मिक विज्ञान होता है। भौतिक विज्ञान उसे कहते हैं जहां मानव नाना प्रकार के यंत्रों में रत रहता है ।यंत्रों में नाना चित्रों का दर्शन करने लगता है। परंतु उसका सूक्ष्म रूप बनाकर के वही शब्दों के रूप में और शब्दों को चित्रों के रूप में दृष्टिपात करता रहता है।
आध्यात्मिक विज्ञान अपने में परा विद्या को देने वाला जो परमात्मा से मिलन कराता है ।इसी प्रकार हमारा जो यह विज्ञान ,वेद का एक एक मंत्र ,हमको प्रदान कर रहा है, विज्ञान में हमें गमन करा रहा है उससे हम ऊर्ध्वा में गमन करते हैं। जिससे हम द्युलोक में प्रवेश कर जाते हैं।
परमपिता परमात्मा का यह जो अनुपम जगत है यह बड़ा विचित्र है। यह हमको भौतिक विज्ञान में ले जाता है। और आध्यात्मिक विज्ञान जिसे आत्मा का विज्ञान कहते हैं वह चेतना में माना गया है ।वह सर्वत्र चेतना के रूप में है। चेतना उसे कहते हैं जहां गति हो और गति के साथ में ज्ञान और प्रयत्न भी हो, वह चेतना का स्वरूप माना गया है। परंतु जडवत उसे कहते हैं जहां गमन हो परंतु उसमें ज्ञान और प्रयत्न न हो ।ज्ञान और प्रयत्न नहीं है तो वहां चेतना का भान नहीं किया जा सकता । वहां जड़वत माना जाता है ।यह पिंड रुप जगत माना गया है। उस परमपिता परमात्मा को पिंड और चेतन दोनों के स्वरूप में विद्यमान मानो। इसलिए वह परमपिता परमात्मा यज्ञमयी स्वरूपवान माना गया है।
अर्थात पिंड और ब्रह्मांड दोनों को एक ही सूत्र में सूत्रित करते हुए ब्रह्मांड और पिंड एक माला के रूप में दृष्टिपात होते रहते हैं। हमको पिंड और ब्रह्मांड और शब्द के ऊपर उपरोक्त अनुसार विचार करना चाहिए।