Saturday, November 23, 2024
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 Faith : कौन है यह मां दुर्गा?

देवेंद्र सिंह आर्य 

आज विजय दशमी भी आ गया। शारदीय नवरात्र पर चारों दिशाओं में माता की पूजा, आराधना का शोर सुनाई पड़ा, हिन्दू संस्कृति में व्रत रखने की परम्परा है। 
लेकिन अगर प्रति प्रश्न करते हैं कि किस चीज का व्रत है? तो यह बताते हैं केवल कि खाना नहीं खाएंगे , हम तो केवल फल खाते हैं। देवी का व्रत है। अग्रिम द्वितीय प्रति प्रश्न  हो कि कौन सी देवी का व्रत है।
मां दुर्गा का।

कौन है यह मां दुर्गा?

शेर की सवारी करने वाली 8  भुजा वाली मां दुर्गा को आप नहीं जानते?

हम पूछते हैं अष्टभुजा माली मां कौन सी होती है? मां दुर्गा ,काली मां ,महाकाली ,चामुंडा देवी , वैष्णवी देवी कौन है ये?
इन प्रश्नों को समझने के लिए जरा यह विचार में  ले लेते हैं
याग पूर्वाभिमुख होकर क्यों करना चाहिए?
अष्ट चक्र क्या है?

 योग के आठ साधन क्या है?

पृथ्वी और ब्रह्मांड की आठ दिशाएं कौन सी हैं? और उन से हमें क्या क्या प्राप्त होता है ?
सूर्य की  वे आठ किरणें कौन सी हैं,जो समस्त पृथ्वी मंडल को लाभान्वित करती है?
इन सब प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने के लिए वसुंधरा, धेनु ,गौ,ब्रह्मांड, प्रकृति और पृथ्वी तथा पाषाण पूजा से होने वाली हानि को समझना आवश्यक है।
देखिए ईश्वर ने जब प्रकृति में से सत, रज और तम तीन तत्वों को लेकर के सृष्टि का निर्माण किया तो उसमें से सत अच्छा है, रज बीच का है ना ज्यादा शुद्ध है न  अशुद्ध है। तम बिल्कुल  अशुद्ध  है।
प्रकृति, पृथ्वी में जड़ता है।
यह जड़ता ही अंधकार है।

तम का तात्पर्य अंधकार और  अज्ञानता  से ही है। अज्ञानता रूपी अंधकार का प्रचलन, प्रसार अधिक होने के कारण  ही विश्व  में अपराधों का आधिक्य है। अज्ञान रूपी अंधकार, जड़ता (जाड्य) को ही कालिमा कहते हैं। यह कालिमा आठों दिशाओं में व्याप्त है। इसी को कालांतर में काली मां कहने लगे। फिर काली मां महाकाली हो गई तो उसकी मूर्ति  भी तैयार हो गई।
जैसा कि हम जानते हैं इस जगत के तीन कारण है ।सत, रज और तम ।जिससे समस्त ब्रह्मांड की उत्पत्ति होती है। जिससे उत्पत्ति होती है उसको साधारणतया  हम माता  कहते हैं।
समस्त ब्रह्मांड की आठ दिशाएं मुख्यतया होती है। जो निम्न प्रकार हैं । प्राची दिग (पूर्वी दिशा) दक्षिणा दिग, प्रीतिची दिग ( पश्चिमी दिशा ),उदिति दिग (उत्तर दिशा) ईशान ,नैऋत्य, आग्नेय, वायव्य।
प्राची दिग से सूर्य का प्रकाश प्राप्त होता है क्योंकि सूर्य प्रातः काल में प्राची दिग में उदय होता है। इसलिए प्रथम दिशा पृथ्वी की पहली भुजा होती है जो इस  लोक  को प्रकाशमान कर रही है। ऐसी ही अलग-अलग आठों भुजाएं कल्याण करने वाली होती है। इन सभी आठों भुजाओं की अपनी महत्ता है। पूर्वी भुजा प्रकाश का भंडार है ।इसी प्रकाश को ज्ञान भी कहते हैं। इसलिए प्रातः काल में प्रत्येक याज्ञिक पूर्वाभिमुख होकर यज्ञ, याग, अग्निहोत्र आदि करता है।

इससे स्पष्ट होता है कि पूर्वाभिमुख  होकर ही यज्ञ क्यों करना चाहिए क्योंकि पूर्व से ज्ञान, अर्थात  प्रकाश प्राप्त होता है। इसलिए पूर्व की भुजा समस्त ब्रह्मांड को, सृष्टि को , पृथ्वी को प्रकाश रूपी   कांति बांट रही है ।पूर्व की दिशा से जब सूर्य उदय होता है तो उषा एवं कांति के साथ आता है। यही ऊषा( ऊर्जा ,कांति, तेज )उत्साह, बल मानव को प्रदान करता है। इसलिए प्रत्येक मानव को उस प्रकृति मां के प्रसाद का प्राप्त करने वाला, सेवन करने वाला बनना चाहिए। उषाकाल में अंतरिक्ष में जो लालिमा होती है वह मानव के नेत्रों में प्रकाश बन  करके अमृत तत्व बिखरती है तथा मानव ऐसे अमृत का पान प्रकृति मां की पूर्वी भुजा से प्राप्त करता रहता है। “प्रकाशाम देवत्यम” अर्थात प्रकाश मानव के लिए देव है। वह जो भुजा प्रकाश दे रही है उसको देवी कहा जाता है। ज्ञान अर्थात प्रकाश ही मानव का जीवन है। मानव इसी दिशा से कांति प्राप्त करता है क्योंकि अंधकार अज्ञान का प्रतीक है। यही देवी की एक भुजा कहलाती है ।यह भुजा कालिमा अर्थात अंधकार को दूर करने वाली होती है ।
ब्रह्मांड, पृथ्वी  की दूसरी भुजा दक्षिण भुजा है। पूरब से उत्पन्न प्रकाश की उर्जा तरंग दक्षिण को भी जाती हैं। जब ऐसी किरणें दक्षिण को चलती हैं तो वे अपने साथ विद्युत अर्थात चमक, उर्जा, प्रकाश को लेकर की जाती है। इन्हीं को विद्युत तरंग कहते हैं। दक्षिण में विद्युत एवं सोम या जल का भंडार  है। सोम में भी विद्युत व्याप्त है। मानव जब शब्द उच्चारण करता है तो उसके शब्दों का भंडार भी दक्षिणदिग कहलाता है क्योंकि ऐसे शब्दों से ही तरंग किरणें उत्पन्न होती है। ऐसे शब्दों से ही अज्ञानअंधकार नष्ट होता है और प्रकाश का सर्वत्र वास होता है।

ऐसे शब्दों से ही नई चमक,( विद्युत) जैसी पैदा होती है। जिन से मानव उच्च कोटि को प्राप्त होकर सफल जीवन प्राप्त करता है ।शब्दों का अपना महत्व है ।आध्यात्मिक वाद जब मानव में आ जाता है तो उसके शब्दों में परिलक्षित होता है। तो ऐसे मानव के शब्दों से विज्ञान अर्थात विशेष ज्ञान की तरंगे निकलती है ।आध्यात्मिक वाद के विज्ञान की किरण सर्वत्र वह ज्ञानी बिखेरता है ।ऐसे मानव के पास शब्दों का अथाह भंडार हो जाता है। इसलिए दक्षिण दिग को विद्युत एवं सोम का भंडार भी कह सकते हैं ।इसलिए बहुत से विद्वानों, आचार्यों द्वारा कहा जाता है कि उत्तर दक्षिण जो भूमंडल की रेखा है वह ऊर्जा यानी विद्युत की तरंगे उत्पन्न करती है। मानव को विश्राम करते समय दक्षिण को पैर इसीलिए नहीं करने चाहिए क्योंकि दोनों तरंगों का समन्वय हो जाता है ,जो मानव शरीर के लिए हानिकारक हो सकता है। यद्यपि पूज्य स्वामी श्री विवेकानंद जी परिव्राजक द्वारा उक्त तथ्य का खंडन अपने प्रवचनों में किया गया है कि दक्षिण को पैर करने से कोई बुराई नहीं है तथा इस से कोई हानि नहीं होती है ।
 शब्द जो उत्तर से पूर्व दिशा होता हुआ दक्षिण को जाता है तो दक्षिण दिशा शब्दों का, विद्युत का, सोम का भंडार बन जाता है। यह मानव जीवन के लिए बहुत उपयोगी है। इसलिए दक्षिण दिशा दूसरी भुजा भी मानव के कल्याण के लिए है।
तीसरी भुजा प्रतीचि दिग  ब्रह्मांड ,पृथ्वी मां की तृतीय भुजा है ।प्रतीचि दिग अन्न  का भंडार है। हम अनुभव करते हैं कि जब पश्चिमी वायु चलती है तो प्रत्येक वनस्पति पेड़ ,पौधे फल से अन्न से हो जाते हैं। इसलिए यह प्रभू का दिया हुआ अन्न का भंडार है‌। क्योंकि पश्चिमी वायु जब वेग से आती है तो अपने साथ विद्युत को लेकर आती है, जो मां पृथ्वी के गर्भ में अनेक प्रकार की आभा को परिणत कर देती है। इसलिए पृथ्वी मां की प्रतीचि दिग अन्न का भंडार कही जाती है क्योंकि नाना प्रकार के खनिज तत्व को वह प्रसाद के रूप में हमको परिणत कर देती है।
चौथी भुजा उदीचीदिक उत्तर दिशा है। पूर्वाभिमुख होकर के याग करना ऊपर लिखा है ।लेकिन साधना के समय उतरा भिमुख होकर भी साधना की जा सकती है। योगाभ्यास किया जा सकता है। प्राण की गति प्राप्त की जा सकती है। इसलिए उत्तर दिशा भी पवित्र दशा मानी गई है। क्योंकि वह भी ज्ञान ,विद्युत का भंडार है। इस दृष्टिकोण से 2 दिशाएं भी हमारे यहां  प्रचुर मात्रा में प्रचलित है।जो सूर्य की दोनों दिशाएं उत्तरायण और दक्षिणायन हैं।
 चंद्रमा के प्रत्येक माह में दो पक्ष एक उत्तरायण और दूसरा दक्षिणायन होता है।
 उत्तरायण को शुक्ल पक्ष (श्वेत) ज्ञान (प्रकाश )वाला कहते हैं ।तथा दक्षिणायन को कृष्ण पक्ष, अंधकार वाला कहते हैं ।इसलिए उत्तरायण का तात्पर्य भी प्रकाश से है। उत्तरायण से ही ‘जन्मबृहि ‘विद्युत चलती है ।उत्तरायण से दक्षिण में चलकर इसका भंडार बन जाता है। इसलिए विवाह संस्कार के समय दंपति वर-वधू पश्चिम से उत्तर की ओर चलते हैं। जिसका दक्षिण में समापन करते हैं।  तथा वही वर वधु ‌फिर चलते या गति करते हैं जिसे’ सप्त अवृहि ‘ अथवा सप्तपदी परिक्रमा कहा जाता है। उत्तर की ओर अभिमुख होकर वे गति करते हैं। इस प्रकार उत्तरायण माता का चतुर्थ भुज है। जब मानव माता पृथ्वी की चार भुजाओं को जान लेता है तो उसको दिकविष्णु या दिग्विजय कहा जाता है ।ऐसी स्थिति में पहुंचने पर मानव विष्णु के स्वरूप को जानने लगता है, अर्थात उस परमात्मा के चर -अचर जगत में व्याप्त रूप को जानने वाला होता है ।ऐसे मानव को चारों दिशाओं में जानने और सम्मान मिलने से ही वह चतुर्धर (चौधरी )कहा जाने लगता है, ऐसा मानव विवेकी हो जाता है।
प्रकृति जन्य पृथ्वी का पांचवा भुज ध्रुवा भी कहा जाता है। साधक ध्रुवा में प्रभु को दृष्टिपात करता है। जैसा कि ऊपर के प्रस्तावों में से आए हैं कि प्रकृति जन्य पृथ्वी काली ,महाकाली का रूप है ।ध्रुवा गति में ज्ञानी गति करता है, रमण करता है। ऐसा साधक चारों और प्रकृतिजन्य ब्रह्मांड को अंधकारमय मानते हुए काली, महाकाली कहता है। क्योंकि अंधकार तम का स्वरूप काला ही होता है, जहां प्रकाश हो जाता है वहां अंधकार तम दूर हो जाता है ।अंधकार कब आता है। जब प्रकृति के तीनों गुणों सत ,रज, तम में से तम की मात्रा अधिक हो जाती है। जब संसार में लूट ,हत्या, डकैती, बलात्कार जैसे अपराध होते हैं। यही काली का रूप है ,यही काली या महाकाली का रूप आठों दिशाओं में फैला हुआ है। इसलिए इसे अष्टभुजा वाली कहते हैं।
मां का छठा भुज ऊर्धवामें रहता है । ‘ऊर्धवा दिक्बृहस्पति ‘अर्थात बृहस्पति कहलाता है। जो देव प्रकृति वाले ऊर्धवा में शिव बनकर मानव का कल्याण करने वाले होते हैं। सभी प्रकार के सुखों की आनंद की वृद्धि होती है। देवत्व को प्राप्त करने वाला होता है। दैवी संपदा से युक्त करता है। इसलिए यह छठी पूजा भी अति महत्वपूर्ण है ।ऊर्धवा गति में पहुंचने पर मानव जो द्युलोक में रमण करने वाला हो जाता है।  द्यु लोक में पहुंचकर ऐसे लोगों का दर्शन करता है‌ जिनका प्रकाश पृथ्वी पर पूरे कल्प काल 4 अरब और 32 करोड़ वर्षों में भी नहीं पहुंच पाता है।
वेद का ऋषि कहता है कि ‘ब्रह्मांडम बृहेकृताम ‘ की ब्रह्म के ब्रह्मांड( कमंडल) में यह ममतामई देवी किसी काल में वास करती थी। अर्थात प्रकृति के तीनों तत्व सत, रज और तम हिरण्यगर्भ थे। जिसका कहीं शन्नो,कहीं दुर्गा, कहीं वसुंधरा, कहीं धेनु, कहीं गौ, आदि भिन्न-भिन्न रूपों में वर्णन आता है ।दैविय  संपदा को प्राप्त करने के लिए देवी  याग प्राणी को करने चाहिए । जिससे साधक योगी चिंतक ,उड़ान भर के ऊर्धवा गति को प्राप्त करता है, विज्ञान को समझ पाता है ।इसलिए वैज्ञानिक, ऋषि ,दार्शनिक प्रकृति की गोद में चले जाते हैं।
सातवीं भुजा ईशान कोण है। ‘ईशान बृहे कृताम ‘ईशान दिशा में ही यज्ञ के समय कलश की स्थापना की जाती है। ईशान कोण में कलश के  स्थापन से यज्ञशाला में ईशान कोण में ज्योति विद्यमान रहती है। इसी को योगी ध्यानवस्थित करता है ।कलश कुंभकार तैयार करता है। जिसमें जल भरा रहता है। जल अमृत वृष्टि करता है। अर्थात ज्ञान की प्रकाश की वृष्टि ईशान कोण से होती है दूसरे शब्दों में कहें तो वह सरस्वती देवी का देने वाला है । क्योंकि ईशान में गति करने वाला जब योगी योगाभ्यास से अपने मूलाधार चक्र में मूलबंध लगा देता है अर्थात वहां से चेतना को निकलने नहीं देता है तो वह चेतना नाभि केंद्र पहुंचती है।   नाभि केंद्र में ज्योति का प्रकाश हो जाता है । नाभि हमारे शरीर का केंद्र है। क्योंकि इसी नाभि से बहुत सारी नाड़ियां हमारे शरीर को निकलती है। जिससे सारे शरीर में ज्योति का प्रकाश होता है ।उसके पश्चात जालंधरबंध को लगाकर के हृदय चक्र में अपनी चेतना को योगी अवस्थित करता है ।तत्पश्चात कंठ चक्र ,स्वाधिष्ठान चक्र, त्रिवेणी में प्रकाश होता है। त्रिवेणी में ईडा, पिंगला, सुषुम्ना तीनों का संगम होता हुआ योगी देखता है। वहीं से सत, रज, तम को देखते हुए योगी ब्रह्मरंध्र में प्रवेश करता है। जहां सर्व ब्रह्मांड के दर्शन करता है ।इसलिए आठ चक्र जो शरीर में होते हैं वे सभी चैतन्य हो जाते हैं ‌ यही आठ चक्र मनुष्य को ब्रह्मरेत्ता एवं  ब्रह्मवेत्ता बनाते हैं।
हमारे ऋषियों ने इस शरीर की कल्पना ब्रह्मांड से की है। जैसा कि राजा जनक की सभा में याज्ञवल्क्य मुनि ने उत्तर देते समय बताया था।
इस प्रकार ये आठ चक्र शरीर के अंदर जो अवस्थित होते हैं उसमें मूलाधार चक्र जिसमें कालिमा  होती है, प्रकाश के माध्यम से ब्रह्मरंध्र तक पहुंचते-पहुंचते यह काली मां, अंधकार समाप्त हो जाती है ।जिससे मानव का उत्थान होता है ।यह आठ चक्र भी अपने आप में आठ भुजाएं हैं जो मानव को प्राप्त हैं।
पृथ्वी की आठवीं भुजा दक्षिणायन कृति  भी कही जाती है। जिसमें विद्युत समाहित होकर पश्चिम दिशा से अन्न का भंडार लेकर के मानव का भरण पोषण करती है।
इसलिए हे प्रकृति मां !
हे पृथ्वी मां!
तू दुर्गा बनकर हमारे दुर्गुणों को दूर कर, उन्हें शान्त कर।
माता तू धुर्वा में रहते हुए वसुंधरा बनकर हमारा कल्याण करने वाली, एवं ऊर्धवा में रहते हुए अमृत की वृष्टि कर, मेघो की वृष्टि कर ।क्योंकि इन्हीं मेघों की वृष्टि से वनस्पति और अन्न उत्पन्न होता है ।तू प्राची दिक से हमें प्रकाश, दक्षिण से विद्युत तरंग प्रदान करते हुए उन्नति को प्राप्त कराए। उदीची दिग से ज्ञान का प्रकाश दे। प्रतीचि दिक से वायु के माध्यम से अन्न का भंडार भर। क्योंकि मानव का शरीर ही अन्न,जल  और प्राण से चलता है ।यह संसार तभी गति करता है । यह ब्रह्मांड गति करता है।
अब विचार करते हैं कि कौन होती हैं वैष्णो देवी ,दुर्गा देवी, मां काली, मां महाकाली , मां चामुंडा।

यह सभी पवित्र भाव है। ऊपर हमने पढ़ा कि आठ दिशाएं होती हैं जो मानव का हर समय एक दूसरे से आकर्षण से धारण किए रहती हैं ।जैसे चुंबक लोहे को स्थिर कर देता है। इसी प्रकार प्रत्येक दिशा प्राणी को अपने में धारण करती रहती है। इसका ज्ञान ,विचार मानव को होना चाहिए ।एक किरण होती है जिसका नाम वैष्णव है। जो अष्टध्वति अर्थात भागोवाली होती है। जिसे  भुसाकम कहते हैं । यह अष्टध्वति किरण प्रातः काल में सूर्य से 8 भाव लेकर चलती है। जो किरण मानव को जीवन देती है अर्थात मानव जिससे जीवन यापन करते हैं। ऐसी किरण खाद्य पदार्थों को पवित्र बनाती है। आप देखते हैं कि सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में अन्नादि उत्पन्न होता है, क्योंकि प्रकाश की उपस्थिति में कार्बन डाइऑक्साइड से क्रिया करके वनस्पति जगत अपना भोजन तैयार करता है। जिस वनस्पति से मानव को कपड़े,अन्न, औषधि आदि प्राप्त होती है।
इसके अतिरिक्त सूर्य की किरण विभिन्न प्रकार के खनिज तत्वों पर भी पड़ती है जिससे लोहा , स्वर्ण आदि धातु मानव को प्राप्त होती है। जिसे हम रोधित किरण कहते हैं ।
इसके अलावा सूर्य की तीसरी किरण अंतरिक्ष में घूमते हुए परमाणुओं को भी प्राप्त होती है। जिससे उनका जीवन संभव है। इसी से उर्ध्व गति प्राप्त होती है। सूर्य की चौथी किरण ऋषियों को, मुक्त आत्मा एवं वैज्ञानिकों को चेतनित करती है। योगाभ्यास करने वालों से मिलान करके आत्मिक ज्योति को जागृत करने में सहायक होती है। उसको रोधनी किरण कहते हैं। इसी को चमुंडला किरण भी कहा जाता है। जिसे बिगाड़ करके चामुंडा देवी कह  और देवी की मूर्ति बनाकर चामुंडा की पूजा होने लगी।
विचार करें कि सूर्य की किरणें जब चलती है तो पृथ्वी के ऊंचे भाग पर अर्थात पहाड़ जैसी वस्तु की ऊंचाई पर प्रातः काल में सर्वप्रथम पहुंचती है ।इसलिए ऋषियों ने, मुनियों ने ऐसी किरणों के आधार पर ऊंची शिखर पर्वत माला को वैष्णवी शिखर आदि नाम दिया, जो कालांतर में श्रद्धालुओं के दर्शन प्राप्त करने का स्थान बन गया। लेकिन स्वार्थी लोगों  ने मंदिर बनाकर माता वैष्णवी की काल्पनिक मूर्ति स्थापित करके पूजा करानी प्रारंभ कर दी । स्वार्थी लोगों ने ‌जनसाधारण को आकर्षित करके अपने जठराग्नि शांत करने का साधन बना लिया।
परंतु साधकों के लिए प्रकृति की गोद में ऐसा स्थान शरीर मन को स्वच्छ एवं स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक है ।प्रारंभ में साधक ही ऐसे स्थानों पर पहुंचे थे ।बाद में भेड़ चाल हो गई‌।
सूर्य की पांचवी किरण पूरब से पश्चिम दिशा को चलती हुई अंधकार को दूर करती चली जाती है। जिससे पर्वतों से मिलान करते, निकलती हुई सर्वत्र व्याप्त होती जाती है। इसी कारण  पर्वतों के ऊपर  भी वनस्पति फलती फूलती है ।
सूर्य की छठी किरण वैष्णवी  भी होती है ।जिसका संबंध माता के गर्भ स्थल से होता है। जो गर्म स्थल बच्चे का विकास करने में सहायक होती है। ऐसी किराना गर्भ में बच्चे का निर्माण करने में सहायक होती है इसलिए उसको मां कहा जा सकता है।ऐसी किरण वैष्णवी मां कही जाती है ।सातवीं किरण वायु वेग के साथ नाना वृक्षों ,वनस्पतियों से मिलान करने वाली  भी होती हैं जो सूर्य से निकलती है। जो उन पेड़ पौधों और वनस्पतियों को छूती हुई तथा विकास करने में सहायक सिद्ध होती है ।
सूर्य की आठवीं किरण विषैले  परमाणुओं से मिलती है ।जिसे गधनित  किरण कहते हैं ।
इसके अलावा हमारे योग दर्शन में आठ अंग हैं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
 यह आठ अंग भी मानव को उर्ध्ववेता बनाकर ब्रह्मरंध्र तक ले जाते हैं। जिससे मानव का कल्याण संभव है।
जिस सूर्य से किरणें निकलती है वह भी दो प्रकार के होते हैं। एक अलौकिक दूसरा पारलौकिक अलौकिक सूर्य यही जो प्रातः काल उदय और सायंकाल को अस्त होता है ।मानव के नेत्रों का प्रकाश बनकर आता है।जिसकी सहायता से मानव अपना कर्तव्य करना प्रारंभ करता है। यही सूर्य अदिति रूप है ।यही अग्नि का भंडार है। अग्नि के प्रकाश से परमपिता के  द्युतिमान प्रकाश से यह सूर्य प्रकाश देता रहता।
 दूसरा हमारे यहां वेद रूपी सूर्य है। जो ज्ञान रूपी सूर्य है ।जैसे लौकिक सूर्य अंधकार  को दूर करके प्रकाश देता है वैसे ही वेद रूपी सूर्य वैदिक साहित्य को गंभीरता से अध्ययन करने वालों को ज्ञान रूपी प्रकाश उसके अंतः करण में स्थापित करता है। यह केवल वैदिक साहित्य की ही विचित्रता है । उसी से  यह‌ प्राप्त हो सकती है। ज्ञान रूपी सूर्य से मानव का हृदय पवित्र और प्रकाशमान हो रहा है।

 इसलिए महर्षि दयानंद ने उद्घोष किया था कि वेदों की ओर लौटो।

 वेदों के प्रकाश से ही साधक प्रभु का दृष्टिपात करता है। काली, महाकाली प्रकृति एवं पृथ्वी के तम तत्व से आच्छादित को जानकर, समझकर धुर्वा, ऊर्धवा गति से पूर्वी दिशा, दक्षिण दिशा, पश्चिम दिशा, उत्तर दिशा से ज्ञान का भंडार प्राप्त करके द्यु के प्रकाश में लाने को दैवीय शक्तियों को लगाता है। अलौकिक सूर्य की किरणों को जान जाता है। पारलौकिक सूर्य वैदिक साहित्य के प्रकाश से अपने अंतर मन को 8 योग के साधनों से एवं मूलाधार से लेकर ब्रह्मरंध्र तक के 8 चक्रों को प्रकाशमान कर लेता है। योग के आठ अंगों के माध्यम से ब्रह्म वेत्ता बनकर अपने जीवन को सफलतम बनाता है ।ऐसा साधन ही 8 चक्रों में  सर्वप्रथम मूलाधार चक्र से निकलकर अपनी चेतना को ब्रह्मरंध्र तक पहुंचाने में सफल होता है। यही आठ भुजाएं हैं। जो मानव कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है ।यही आठ भुजाएं हैं जो दैवीय शक्तियों से ओतप्रोत रहती हैं। ईश्वर का नाम स्त्रीलिंग, पुलिंग में आते हैं ।यह दैवीय शक्ति और भी ईश्वर ही के ही नाम होते हैं। यह ईश्वर की ही दैवीय शक्ति है। इसलिए ईश्वर ही देवी कहा जाता है। ईश्वर के अतिरिक्त अन्य कोई देवी भी नहीं है। इसलिए अन्न को  त्याग करना व्रत नहीं ,बल्कि उस ईश्वर की ऐसी दैवीय शक्तियों को संकल्प के माध्यम से प्राप्त करना  व्रत है ।पांच ज्ञानेंद्रियों, पांच कर्मेंद्रियों, 11वा  मन पर संयम करना ही व्रत है। मन ,वचन और कर्म से अपनी इंद्रियों को संयम में रखना ही व्रत है। चित्त से अनुचित प्रवृत्तियों को निरोध करना ही व्रत है। पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियों, ११ वे मन को वश में रखना ही एकादशी का व्रत है। क्षुधा से क्षुधित रहना व्रत नहीं। बल्कि ‘दुरि तानी दुराम’ को जीवन में लाना अर्थात दुर्गुणों को दूर रखना ही व्रत है। इनको त्यागना ही व्रत है। अच्छाइयों को ग्रहण करना अच्छाइयों को प्राप्त करने का संकल्प लेना ही व्रत है ।
11 इंद्रियों को विचारशील संकल्पित बनाना व्रत है ।इंद्रियों पर नित नए अनुसंधान करना व्रत है
अन्न केवल अजीर्ण की अवस्था में छोड़ना चाहिए जब अजीर्ण हो तो शक्कर डालकर के दूध भी रहना चाहिए।

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