Friday, November 22, 2024
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Vijaydev Narayan Jayanti : देश और समाज के लिए  लोहिया और जेपी साथ कंधा से कंधा मिलाकर चले थे विजयदेव नारायण साही

नीरज कुमार 

आज यानी कि 7 अक्टूबर को विजयदेव नारायण साही का आज जन्मदिन हैं | समाजवादी साहित्य-दृष्टि पर जब भी बात होगी या होती है, समाजवादी विचार से सक्रिय रूप से जुड़े, शुरू में आचार्य नरेन्द्र देव और बाद में डॉ. राममनोहर लोहिया से गहरे सरोकार में बंधे चिन्तक, कवि और सामाजिक कार्यकर्ता  विजयदेव नारायण साही का उल्लेख जरुरी लगता है | साही जी स्वतंत्रोतर हिंदी ‘नयी चेतना’ के अगुआ व्यक्तित्व है | हिंदी साहित्य पर सार्थक बातचीत के लिए साही जी अनिवार्य सन्दर्भ हैं | अनिवार्य वही होता है, जिसे हटा देने पर एक रिक्तता पैदा हो जाती है | अनिवार्य का विकल्प नहीं होता | ‘नयी कविता’ के सन्दर्भ में ‘प्रयोगवाद’ के साथ उसकी संघर्ष-मुद्रा बनती-बिगडती रही हैं | ‘प्रयोगवाद’ (तार-सप्तक-अज्ञेय) को प्रारम्भ और ‘नयी कविता’ को उसका विकास मानने वाली दृष्टि हिंदी विचारकों के बीच प्रचलित एक मान्यता रही है | साही जी इसके बीच स्पष्ट विभाजन करते हैं और ‘नयी कविता/नयी चेतना’ को मूल्य की नयी जमीन पर खड़ा करते हैं | उनका स्पष्ट कहना है कि ‘तार सप्तक’ (1943) नयी कविता का शुरूआती बिंदु नहीं है | बल्कि इलाहाबाद से प्रकाशित ‘नयी कविता’ (1953-1954) के साथ हिंदी में नयी चेतना की शुरुआत होती है | इस मान्यता के पीछे जिस कारण का उल्लेख साही जी ने किया है, वह बहुत तीखा और चुभने वाला है | साही जी ने ध्यान दिलाया कि ‘तार सप्तक’ का पहला संस्करण जिस कागज़ पर छपा है, वह ब्रिटिश हुकूमत के लिए उपभोग में लाया जाने वाला कागज़ है और सामान्य लोगों के लिए उसे प्राप्त करना संभव नहीं है | यानी अज्ञेय जी का रिश्ता ब्रितानी हुकूमत के साथ था | साही जी ने यह भी बतलाया कि तार-सप्तक के कम-से-कम पांच कवि घोषित कम्युनिस्ट हैं |

‘तार सप्तक’ और ‘नयी कविता’ दोनों नयी चेतना के वाहक होने के दावेदार है और दोनों के मूल्य के स्तर पर परस्पर भिन्न हैं, तब साही जी की वास्तविक नयी चेतना क्या है ? ‘तार सप्तक’ की पूरी प्रक्रिया से साही जी की असहमति में उस बोध को ढूंढा जा सकता है और स्पष्ट रूप में रेखांकित किया जा सकता है कि उसका मूल्य स्वर राष्ट्रीयता, जातीय और सांस्कृतिक बोध का है | यहाँ एक बात और ध्यान देने की है कि साही जी साहित्य में डॉ. राममनोहर लोहिया को भरने का प्रयत्न कर रहे थे | अवांतर प्रसंग में यही बात डॉ. धर्मवीर भारती ने भी अपने निबंध (संकलित, ‘समग्र लोहिया’) में स्वीकार की है | रघुवंश जी तो प्रत्यक्षतः अपने लेखों में इसकी भूमि तैयार करते रहे हैं | लक्ष्मीकांत वर्मा जी के ‘नयी कविता के प्रतिमान’ में कई जगह इसके प्रमाण गुंथे हुए हैं | सारे सन्दर्भों से एक सूत्र अवश्य प्रत्यक्ष होता और वह यह कि साही जी द्वारा प्रस्तावित नयी कविता की नयी चेतना, जिसमें राष्ट्रीयता, जातीयता और सांस्कृतिक-बोध के संकेत छिपे हैं, के मूल स्त्रोत डॉ. लोहिया हैं |

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