नई दिल्ली, 26 मार्च 2025: सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के इंद्रप्रस्थ अपोलो हॉस्पिटल को कड़ी फटकार लगाते हुए चेतावनी दी है कि यदि वह गरीब मरीजों को मुफ्त इलाज देने के अपने दायित्व का पालन नहीं करता, तो अस्पताल को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के अधीन कर दिया जाएगा। कोर्ट ने कहा कि अस्पताल को दिल्ली के पॉश इलाके में मात्र एक रुपये के प्रतीकात्मक लीज अनुबंध पर 15 एकड़ जमीन दी गई थी, जिसके बदले में उसे 40 प्रतिशत बाहरी (आउटडोर) और एक तिहाई भीतरी (इनडोर) गरीब मरीजों का मुफ्त और बिना भेदभाव के इलाज करने की शर्त थी। हालांकि, कोर्ट ने इस शर्त के उल्लंघन को गंभीरता से लिया और अस्पताल प्रशासन से पिछले पांच वर्षों का रिकॉर्ड मांगा है।
नियमों का उल्लंघन कैसे हुआ?
इंद्रप्रस्थ अपोलो हॉस्पिटल, जो इंद्रप्रस्थ मेडिकल कॉर्पोरेशन लिमिटेड द्वारा संचालित है, इस हॉस्पिटल के लिए 1994 में दिल्ली सरकार के साथ हुए लीज समझौते के तहत यह जमीन आवंटित की गई थी। समझौते की शर्तों के अनुसार, अस्पताल को “न लाभ, न हानि” के आधार पर संचालित करना था और गरीब मरीजों के लिए निर्धारित प्रतिशत में मुफ्त चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध करानी थीं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान यह सामने आया कि अस्पताल ने इन शर्तों का पालन नहीं किया और इसे एक व्यावसायिक उद्यम में बदल दिया, जहां गरीब मरीजों को इलाज मिलना मुश्किल हो गया। कोर्ट ने टिप्पणी की कि यह व्यवस्था गरीबों के हित में नहीं, बल्कि लाभ कमाने के लिए चलाई जा रही है।
इस मामले की शुरुआत तब हुई, जब दिल्ली हाई कोर्ट ने 22 सितंबर 2009 को अपने एक आदेश में कहा था कि अपोलो हॉस्पिटल ने गरीब मरीजों को मुफ्त इलाज देने की शर्तों का उल्लंघन किया है। हाई कोर्ट ने केंद्र और दिल्ली सरकार से यह भी पूछा था कि यदि लीज समझौता आगे नहीं बढ़ाया गया, तो जमीन के इस हिस्से के लिए क्या कानूनी कदम उठाए गए। इसके खिलाफ अपोलो ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की, जिस पर जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने सुनवाई की और मौजूदा स्थिति पर सख्त रुख अपनाया।
सुप्रीम कोर्ट में मामला कैसे पहुंचा?

यह विवाद तब सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, जब अपोलो हॉस्पिटल ने दिल्ली हाई कोर्ट के 2009 के फैसले को चुनौती दी। हाई कोर्ट ने अपने आदेश में अस्पताल के शर्तों का उल्लंघन करने को रेखांकित किया था और सरकार से जवाब मांगा था। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को गंभीरता से लेते हुए कहा कि यदि गरीबों को मुफ्त इलाज नहीं दिया जा रहा, तो यह जनहित के खिलाफ है। कोर्ट ने केंद्र और दिल्ली सरकार को एक संयुक्त विशेषज्ञ टीम गठित करने का निर्देश दिया, जो पिछले पांच वर्षों के रिकॉर्ड की जांच करेगी और यह सुनिश्चित करेगी कि क्या अस्पताल ने अपनी प्रतिबद्धता पूरी की।
क्या निजी अस्पताल गरीबों का मुफ्त इलाज कर रहे हैं?
भारत में कई बड़े निजी अस्पतालों को सरकारी जमीन सस्ते दामों या प्रतीकात्मक किराए पर इसलिए दी जाती है, ताकि वे गरीब मरीजों को मुफ्त इलाज उपलब्ध कराएं। सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में भी दिल्ली के मूलचंद अस्पताल मामले में फैसला सुनाया था कि सरकारी जमीन पर बने निजी अस्पतालों को अपने कुल बेड का 25 प्रतिशत गरीबों के लिए मुफ्त रखना होगा, वरना उनका लाइसेंस रद्द किया जा सकता है। अपोलो के मामले में यह शर्त 40 प्रतिशत आउटडोर और एक तिहाई इनडोर मरीजों के लिए थी।
हालांकि, कई रिपोर्ट्स और कोर्ट केस बताते हैं कि ज्यादातर निजी अस्पताल इन शर्तों का पालन नहीं करते। गरीब मरीजों को या तो इलाज से वंचित रखा जाता है या उन्हें अपमानजनक व्यवहार का सामना करना पड़ता है। विशेषज्ञों का मानना है कि निजी अस्पतालों की व्यावसायिक सोच और लाभ कमाने की प्राथमिकता इन शर्तों के उल्लंघन का मुख्य कारण है।
दिल्ली सरकार की निष्क्रियता क्यों?
दिल्ली सरकार, जिसकी अपोलो हॉस्पिटल में 26 प्रतिशत हिस्सेदारी है, इस मामले में अब तक सख्त कार्रवाई करने में नाकाम रही है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर सवाल उठाया कि लीज समझौते का उल्लंघन होने के बावजूद सरकार ने क्या कदम उठाए। जानकारों का कहना है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी, निजी अस्पतालों के साथ सांठगांठ और निगरानी तंत्र की कमजोरी इसके पीछे बड़े कारण हैं। लीज अवधि 2023 में खत्म होने के बाद भी सरकार ने नवीनीकरण या कार्रवाई को लेकर कोई स्पष्ट रुख नहीं अपनाया, जिसे कोर्ट ने गंभीरता से लिया।
अब आगे क्या होगा ? क्या बाकी के निजी अस्पतालों पर नकेल कसेगी ?
सुप्रीम कोर्ट ने अस्पताल से हलफनामा मांगा है, जिसमें पिछले पांच वर्षों में गरीब मरीजों को मुफ्त इलाज का ब्योरा देना होगा। साथ ही, विशेषज्ञ टीम के निरीक्षण के बाद कोर्ट चार हफ्ते बाद इस मामले की अगली सुनवाई करेगा। यह मामला न केवल अपोलो हॉस्पिटल, बल्कि उन सभी निजी अस्पतालों के लिए एक मिसाल बन सकता है, जो सरकारी सुविधाओं का लाभ लेकर गरीबों के हक को नजरअंदाज करते हैं।