राजेंद्र स्वामी, संवाददाता
नई दिल्ली। कारोबारी छोटे हों या बड़े, उन्हें आए दिन कई मुश्किालों के दौर से गुजरना पड़ता है। पहले नोटबंदी और फिर जीएसटी ने उसकी मुश्किलें बढ़ाईं। उसके बाद कोरोना संक्रमण प्रकोप से आई मुसीबत में कारेबारी घर बैठने को मजबूर हो गए थे। उनका सारा काम-धंधा ठप हो गया था। कोरोना काल खत्म भी नहीं हुआ था कि अब नई मुसीबत किसान आंदोलन की वजह से आ गई।
जी हाँ दिल्ली में कारोबारियों कई सालों से चल रही मुसीबतों का दौरा जारी है। नोटबंदी, जीएसटी, कोविड-19 प्रकोप के बाद अब किसान आन्दोलन ने पहले से आईसीएयू में चल रहे उधोग जगत के सामने तबाही की आसार बना दिए हैं। खासकर नरेला, बवाना के कारोबारियों का तो हाल बहुत ही बुरा है। इन कारोबारियों का हाल जानने दिल्ली दर्पण टीवी पहुंची अलग-अलग इलाकों में पहुंच रही है। इसी कड़ी में नरेला इंडस्ट्रियल एरिया में बवाना चेम्बर्स ऑफ़ इंडस्ट्रीज के चैयरमेन प्रकाश चंद जैन से बातचीत हुई। उन्होंने सिलसिलेवार ढंग से कोरोबारियों को जो समस्याएं गिनाईं उससे निजात पाने को लेकर वे काफी बेचैन हैं।
इनकी वजह से कारोबारी कितने परेशान हैं? कारोबारी जगत हालत कैसी है? उसे उन्हों अनुमानित तौर पर कितना नुकसान हो चुका है? सवालों पर प्रकाश चंद जैन ने बताया,” पहले तो नोटबंदी आ गई, उसने हमें मारा। उनसे उबरने का सिलसिला शुरू ही हुआ था कि कोरोना आ गया उसने हमें कोरोना ने मारा। अब ये किसान आंदोलन आ गया। बिजनेस के हालता इतने डंप है। हम काफी परेशानी में हैं। माइक्रो इंडस्ट्री वाले काफी परेशान हैं। अभी बोर्डर पर जितने भी किसान बैठे हैं, उनकी वजह से तीन महीने से पूरा कारोबार ठप है।
एनसीआर में सारी माइक्रो, स्माल एंड मीडियम एंटरप्राइजेज हैं। वे बहुत बड़ी-बड़ी यूनिट्स नहीं हैं। किसी तरह से हैंड-टू-माउथ कर अपना काम चला रही हैं। अब हालत इतनी पस्त हो गई है कि न तो वाहां लेबर पहुंच पा रही है, और न ही कच्चा माल पहुंच पा रहा है। न तैयार माल वहां से निकल पा रहा है। एक्सपोर्टर के आर्डर समय पर निकल नहीं पा रहे हैं। मतलब इतनी हानि हो रही है कि वे उसका हिसाब नहीं लगा पा रहे हैं।
उन्होंने कहा, ‘सच तो यह है कि व्यपारी की तरफ किसी का कोई ध्यान नहीं है। व्यापारी के लिए थोड़ी सी भी संवेदना नहीं है। कृषि जगत के लिए बहुत संवेदना है। वो अन्नदाता है! वो मालिक है! वो बहुत मेहनत करता है! अरे!! क्या हम मेहनत नहीं करते? 365 दिनों में पांच दिनों की छुट्टी करते हैं। 360 दिन काम करते हैं 12 घंटे रोज। हमसे पूछें काम किसे कहते हैं?”
उन्होंने कहा,’खेती एक साल काम करने के लिए तीन महीना काम होता है। नौ महीना किसान खाली होता है। आप क्या सोंचते हैं कि बोर्डर पर जो बैठे हैं वे किसान हैं क्या? असली किसान तो खेतों में काम कर रहे हैं। ये वे लोग हैं, जो खाली बैठे हैं। बूढ़े हैं। या इनको फ्री का माल चाहिए।”
प्रकाश चंद की वेदना को लेकर जब उनसे पूछ गया कि क्या आंदोलन में कुछ गलत तत्व घुस आए हैं, तब उन्होंने बताया,” शुरू-शुरू में ठीक था। किसान आंदोलन था, लेकिन बाद में दूसरी शक्तियों ने इसे अपने पावर में ले लिया। अब इसमें किसान बचे ही नहीं हैं। टिकैत को आप किसान बोलते हैं क्या? उनकी संपत्ती देख लें जरा। उनके पिता महेंद्र सिंह टिकैत की क्या संपत्ती थी। उनके पास मात्र 24 बिगहे की जमीन थी। दोनों भाइयों में बंटवारा होता 12-12 बिगहे आती। आज उनके पास कितने बंगले, कितने फार्म हाउस और खेती की जमीन है।
किसान आंदोलन के चलते कारोबार जगत को हुए नुकसान और फैक्ट्री मालिकों को आने वाली दिक्कतों के बारे में प्रकाश चंद बताते है,” दिल्ली एनसीआर में जितने भी एमएसएमई उद्योग है इस समय भारी प्रताड़ना के शिकार हो रहे हैं। पिछले तीन महीने से न तो मेरे पास कोई रॉ मटेरियल आ पा रहा है और न जा पा रहा है। न एक्सपोर्ट का कोई कमिटमेंट पूरा कर पा रहे हैं और न ही लेबर सही समय पर पहुंच पा रहे हैं। हमारा जितना भी कारोबार है लगभग बंद पड़ा है। हमारे खर्चे बने हुए हैं। बैंकों का ब्याज चल रहा है। मकान के भाड़े हैं। मेंटेंश है।
हम माइक्रो इंडस्ट्री वाले कैसे सर्वाइव करेंगे। हमें रिलीफ देने को कोई तैयार नहीं है। किसान के नाम पर तो कर्ज माफ हो जाते है। किसान के नाम पर तो एमएसपी है। हमारे पास तो कुछ नहीं है। हमारी प्रॉब्लम के बारे में सरकार ने कोई स्पोर्ट नहीं किया आज तक। न कोई लोन माफ किया, न इंट्रेस माफ किया और न ही कोई और स्पोर्ट दिया। हम तो रोज कमाने और खाने वाले लोग हैं।
वर्कर की उपिस्थति पूरी नहीं हो पा रही है। 18 में से कभी आठ तो कभी दस आ पाते हैं। कैसे प्रोडक्शन होगा? हालात सुधरने के सवाल पर उन्होंने बताया,”हम तो बस यह मनाते हैं किसानों और कृषि मंत्री की सहमती बने। उनके बीच एग्रीमेंट हो।
केंद्र सरकार ने माइक्रो इंडस्ट्री के लिए बहुत सारी योजनाएं लेकर आई और लोन की भी व्यवस्था की। मेक इन इंडिया का नारा भी दिया। बहुत सारी सुविधाएं दी, सुधार किया। इसपर भी कह रहे हैं कि कारोबार जगत मायूस है, खुश नहीं है। दिल्ली में माहौल नहीं है। इसके लिए किसको जिम्मेदार मानते हैं?इसपर प्रकाश चंद ने बाताया,” सीतारमण जी ने दो लाख करोड़ रुपये का बजट दिया था। उसमें से 6 करोड़ एमएसएमई के हिस्से में आएगा। हिसाब लगाएंगे तो एक एमएसएमई हिस्से 250 रुपये एक साल में आते हैं। यह एक मजाक नहीं तो क्या है? अब 65 लाख करोड़ रुपये के एवज में 15000 करोड़ रुपये मिलते हैं तब हमारी अहमियत का अंदाजा लगाई जा सकती है। हमें सरकार से निवेदन है कि हमें मिनी बजट दें, हमारे छोटे माइक्रो इंडस्ट्री को सहायता दें।
कहने अर्थ यह हुआ कि एक माहौल भी नहीं बन पा रहा है। सच तो यह है कि हमें अधिक सहायाता की भी जरूरत नहीं है। हम तो परिश्रम करने वालों में से हैं। सिर्फ यह चाहते हैं कि हमें ऐसा माहौल मिल जाए ताकि हम काम करने में समर्थ हों। हम तो 360 दिन काम करने वाले लोग हैं। 100 दिन हो गए। एनसीआर में सारा काम बंद है। बड़े का कुछ बिगड़ता नहीं, छोटे का कुछ रहता नहीं, मार तो पड़ती है हम बीच वालों पर। रही बात गुनहगार की तो दिल्ली सरकार की सहानुभूति किसानों के साथ है।हम उद्यमियों की तरफ कुछ नहीं हैं। हमें तो काई रिलीफ नहीं दी है। हमपर टैक्स लाद रखे हैं, बिल दे रेखे हैं। जबकि बराबर में जो एनसीआर है उसे बिल भरना ही नहीं पड़ता है। पांच गुना हाउस टैक्स है। मेंटेंनेंस, सीटीपी, प्रदूषण के पैसे देने हैं। हर रोज चलान और सीलिंग होता रहता है। फैक्ट्रियों पर नोटिस मिलता रहता है। हम इतने तंग आ चुके हैं कि दिल्ली सरकार से आशा ही नहीं करते हैं कि उससे हमें कोई सहारा मिले। रही बात केंद्र सरकार की। वहां से बनने वाली स्कीम फाइलों तक ही रह जाती हैं। धरातल पर पहुंच ही नहीं पाती। हम दिल्ली में, फिर भी केंद्र सरकार की स्कीम हम तक नहीं पहुंच पाती है। हम उनका लाभ ही नहीं ले पाते।
उन्होंने बताया कि दिल्ली में फैक्ट्री के लिए एक जंजाल बना हुआ है। मल्टी पुलिस की आथॅरिटी है। यहां केंद्र और दिल्ली सरकार कानून चलता है। डीएसआइडीसी, एमसीडी,डीडीए और कई विभाग हैं। कुल 22 विभागों को टैक्स देना पड़ता है। कोई सपोर्ट नहीं है। यह जानकर आश्चर्य होगा कि तीन विभाग हमसे सफाई के पैसे लेते हैं, लेकिन सफाई कोई नहीं करता। डीएसआडीसी, एमसीडी का हाउस टैक्स और ठेकेदार की कंपनी है बवान इंटरप्राइजेज डेवलपमेंट मेंटेंनेंस, जो भारी भरकप पैसे लेती है। फिर भी हालत बिगड़ी हुई है। टैक्स सबको चाहिए, नहीं मिलने पर उद्यमियों को चोर, लुटेर, और उठाईगिरा कह डालते हैं। जीएसटी का जो पैसा सरकार के पास जा रहा है वह हमसे ही तो मिल रहा है। जबकि हमारे लिए पेंशन तक के बारे में भी नहीं सोचते हैं। किसान, मजदूर और दूसरे विभागों को तो पेंशन दे रहे हैं। क्या आपने हमारे लिए कोई सोचा है?
क्या कभी आपने सोचा है कि काम बंद कर लेना चाहिए? हमें पलायन कर लेना चाहिए, या अपने बच्चों को फैक्ट्री खुलवाकर नहीं देनी ही नहीं चाहिए। इस पर प्रकाश चंद कहते है कि हम कर्मशील लोग हैं। अपने बच्चों को यही सिखाते हैं कि अपनी फैक्ट्री लगाओ, नौकरी नहीं करो। नौकरी देने वाले बनो।