अकेला रह गया है बनावटी रिश्तों में अपनापन ढूंढ रहा व्यक्ति
गांवों को वीरान कर रहा है महानगरों के प्रति बढ़ रहा मोह
बुजुर्ग मां बाप के लिए असहनीय हो रही है बच्चों की दिखावे की जिंदगी
चरण सिंह राजपूत/दिल्ली दर्पण टीवी
नई दिल्ली। आज की भागम-भाग की जिंदगी में रिश्ते-नाते, अपनापन, खेत खलियान देशभक्ति सब कुछ छूटती सी जा रही है। यदि मिल रहा है तो स्वार्थपन, नफरत, बीमारी और अकेलापन। यह हमारा ही बनाया हुआ माहौल है कि हम लोग रोज कितने लोगों से मिलते हैं। कितने लोग सोशल मीडिया पर हमारे संपर्क हैं। कितने हमारे रिश्तेदार हैं, कितने हमारे परिवार में हैं। जरा आत्ममंथन करें, क्या वास्तव में हम लोग दिलों से एक दूसरे से जुड़े हैं ? क्या हमें मां-बाप का थोड़ा सा भी ख्याल है ? क्या हम लोग भी जल्द ही अपने मां बाप की जगह नहीं लेने वाले हैं ?यदि हैं तो फिर ये दिखाया और तामझाम किस काम के ? जरा सोचो कि तमाम संसाधनों के बावजूद हम लोगों के शरीर में कितनी बीमारियां घर कर गई हैं। कभी सोचा है कि इन सबके कारण क्या हैं ? लोगों को यह समझना होगा कि बनावटी रिश्ते बनाने से बस नुकसान ही है। आज जरूरत आत्मीयता के रिश्तों को बनाने की है। एक दूसरे को दिलों से जोड़ने की है। समाज में देख लो जो लोग दिल के अच्छे होते हैं वे स्वस्थ होते हैं। बनावटी बात करने वाला व्यक्ति परेशान ही दिखाई देता है। ये सब क्यों हो रहा है ? जरा सोचिये। भारत गांवों में बसता है। यदि आज की तारीख में गांवों के हालात का सर्वे करेंतो पाएंगे कि कितने घरों में बच्चे ही नहीं मिलेंगे। इन सबका कारण क्या है ? गांवों के अधिकतर बच्चे दिल्ली, नोएडा, गुड़गांव, पूना, बेंगलुरु, चंडीगढ़,बॉम्बे, कलकत्ता, मद्रास, हैदराबाद, बड़ौदा जैसे बड़े शहरों में जाकर बस गये हैं?जो लोग महानगरों में रह रहे हैं वे जरा एक बार अपने गांवों की उन गली मोहल्लों से पैदल निकलिए जहां से वे बचपन में स्कूल जाते समय या दोस्तों के संग मस्ती करते हुए निकलते थे।
वहां पर पाएंगे कि लगभग हर घर की ओर आपको एक चुपचाप सी वीरानी मिलेगी। न कोई आवाज़, न बच्चों का शोर। हां किसी-किसी घर के बाहर या खिड़की में आते-जाते लोगों को ताकते बूढ़े जरूर मिल जायेंगे। जरा सोचिए कि आखिर इन सूने होते घरों और खाली होते मुहल्लों के कारण क्या हैं ?
दरअसल भौतिकवाद के इस युग में हर व्यक्ति चाहता है कि उसके एक बच्चा और ज्यादा से ज्यादा दो बच्चे हों। उनके बच्चे अच्छे से अच्छे स्कूल में पढ़ें लिखें। उनको लगता है या फिर दूसरे लोग उसको ऐसा महसूस कराने लगते हैं कि छोटे शहर या कस्बे में पढ़ने से उनके बच्चे का कैरियर खराब हो जायेगा या फिर बच्चा बिगड़ जायेगा। बस यहीं से बच्चे निकल जाते हैं बड़े शहरों के होस्टलों में। अब भले ही दिल्ली और उस छोटे शहर में उसी क्लास का सिलेबस और किताबें वही हों मगर बड़े शहर में पढ़ने भेजने का मानसिक दबाव सा आ जाता है ।
देखने की बात यह भी है कि इतना सब होने के बावजूद मुश्किल से 1% बच्चे IIT, PMT या CLAT वगैरह में निकाल पाते हैं…। फिर वही मां बाप बाकी बच्चों का पेमेंट सीट पर इंजीनियरिंग, मेडिकल या फिर बिज़नेस मैनेजमेंट में दाखिला कराते हैं।
इस माहौल का असर यह होता है कि घरों से बाहर पढ़ते-पढ़ते ये बच्चे बड़े शहरों के माहौल में रच बस जाते हैं। फिर वहीं नौकरी ढूंढ लेते हैं। सहपाठियों से शादी भी कर लेते हैं। माता पिता को तो शादी के लिए हां करना ही है नहीं तो बगावत झेलनी पड़ेगी। न मानने पर हो सकता है कि कुछ अनर्थ भी हो जाये। ये ही माँ बाप सभी को अपने बच्चों के बारे में गर्व से बताते हैं । उनके उनके वेतन के पैकेज के बारे में भी बताते हैं। एक साल, दो साल या फिर कुछ साल बीत जाने पर जब मां बाप बूढ़े हो जाते हैं तो देखते हैं कि बच्चों ने लोन लेकर बड़े शहरों में फ्लैट ले लिये हैं। अब अपना फ्लैट है तो काहें के गांव, काहें के माँ-बाप, त्योहारों की तो छोड़ ही दो ?
गांवों में अपनों से शादी ब्याह में मुलाकात हो जाती थी पर अब तो शादी ब्याह भी बेंकट हाल में होते हैं, वहां पर तो लोग भी गिने-चुने आते हैं। मुहल्ले में और घर जाने की भी ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती है। होटल में ही रह लेते हैं। होटल में तो गांव का कोई मिलने नहीं आएगा।
हाँ शादी ब्याह में कोई मुहल्ले वाला पूछ भी ले कि भाई अब कम आते जाते हो तो छोटे शहर, छोटे माहौल और बच्चों की पढ़ाई का उलाहना देकर बोल देते हैं कि अब यहां रखा ही क्या है?
खैर, बेटे बहुओं के साथ फ्लैट में शहर में रहने लगे हैं । अब फ्लैट में तो इतनी जगह होती नहीं कि बूढ़े खांसते बीमार माँ बाप को साथ में रखा जाये। बेचारे पड़े रहते हैं अपने बनाये या पैतृक मकानों में।
अब तो कोई बच्चा बागवान पिक्चर की तरह मां बाप को आधा – आधा रखने को भी तैयार नहीं।
अब साहब, घर खाली-खाली, मकान खाली खाली और धीरे धीरे मुहल्ला खाली हो रहा है। अब ऐसे में छोटे शहरों में कुकुरमुत्तों की तरह उग आये “प्रॉपर्टी डीलरों” की गिद्ध जैसी निगाह इन खाली होते मकानों पर पड़ती है । वो इन बच्चों को घुमा फिरा कर उनके मकान के रेट समझाने शुरू करते हैं । उनको गणित समझाते हैं कि कैसे घर बेचकर फ्लैट का लोन खत्म किया जा सकता है । एक प्लाट भी लिया जा सकता है। यह बदलता ही दौर है की संपत्ति और पैसे के लिए रोज मां बाप की हत्या करने की ख़बरें सुनने और पढ़ने को मिलती रहती है। कितने बच्चे तो अपने मां बाप को बीमे के पैसे के लिए ही मार डालते हैं।
यह भौतिकवाद ही है कि मां बाप के बुढ़ापे का सहारा मक़ाम भी इन्ह्ने खलने लगता है। क्योंकि लालाओं को खाली होते इन मकानों में मार्केट और गोदामों का सुनहरा भविष्य दिखाने लगते हैं। बाबू जी और अम्मा जी को भी बेटे बहू के साथ बड़े शहर में रहकर आराम से मज़ा लेने के सपने दिखाकर मकान बेचने को तैयार कर लेते हैं।
यह भी जमीनी हकीकत है कि यदि बच्चे महानगरों में पढ़ रहे हैं तो वापस नहीं आयेंगे। इनकी सोच बन जाती है कि छोटे शहर में रखा ही क्या है ? इंग्लिश मीडियम स्कूल नहीं है, हॉबी क्लासेज नहीं है, IIT/PMT की कोचिंग नहीं है, मॉल नहीं है, माहौल नहीं है, कुछ नहीं है साहब, आखिर इनके बिना जीवन कैसे चलेगा?
भाईसाब ये खाली होते मकान, ये सूने होते मुहल्ले, इन्हें सिर्फ प्रोपेर्टी की नज़र से मत देखिए, बल्कि जीवन की खोती जीवंतता की नज़र से देखिए। आप पड़ोसी विहीन हो रहे हैं। आप वीरान हो रहे हैं। आज गांव सूने हो चुके हैं शहर कराह रहे हैं |
सब कुछ होते हुए भी सूने घर आज भी राह देखते हैं.. वो बंद दरवाजे बुलाते हैं पर कोई नहीं आता…!!!!!