मामा बालेश्वर दयाल ने 8 महीने जेल में रहकर जागीरदारी प्रथा समाप्त कराई थी
डॉ. सुनीलम
(मामा बालेश्वर दयाल जी की 24 वीं पुण्यतिथि 26 दिसंबर 22 को है । इस अवसर पर मैं मामाजी द्वारा 4 जून 1974 को हरिदेव शर्मा, नेहरू स्मारक संग्रहालय तथा पुस्तकालय के लिए दिए गए एक साक्षात्कार के आधार पर एक लेख सांझा कर रहा हूं । यह साक्षात्कार मामा जी के जन्म शताब्दी वर्ष के अवसर पर मामा बालेश्वर दयाल जन्म शताब्दी समारोह समिति द्वारा भी प्रकाशित किया गया था। स्मारिका का संपादन ,वरिष्ठ पत्रकार क्रांति कुमार वैद्य और मैंने किया गया था। समारोह समिति की संरक्षक मामा जी की मानस पुत्री मालती बहन थीं तथा प्रबंधक राजेश बैरागी थे। )
मामाजी का नाम बालेश्वर दयाल दीक्षित था । उनकी की प्रारंभिक शिक्षा ग्राम निवाड़ी कला, जिला इटावा उत्तर प्रदेश में हुई। वहीं राजकीय इंटर कॉलेज से उन्होंने इंटर पास किया। मामा जी को उनके कॉलेज के प्रोफेसर मित्रा जी ने सर्वाधिक प्रभावित किया। आदिवासियों के प्रति लगाव कर्नल जेम्स टॉड की किताब एनाल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान पढ़कर पैदा हुआ। मामा जी दो भाई, दो बहन थे। पिताजी सरकारी टाउन स्कूल में हेडमास्टर थे।
जब इटावा कॉलेज में कुछ छात्र कोट पर झंडा लगाकर आए तब प्रिंसिपल ने झंडा निकाल कर फेंक दिया। जिन छात्रों ने विरोध किया उन्हें निष्कासित कर दिया गया। निष्कासन के बाद बालेश्वर दयाल अपने मामा के पास खाचरोद ,जिला उज्जैन आ गए। जब 1920- 21 में असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तब उन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ सत्याग्रहियों के लिए आटा दाल इकट्ठा कर खाना पहुंचाना शुरू किया। खाचरोद में उन्होंने गांधीजी से प्रभावित होकर समाज सेवा का कार्य शुरू किया। उन दिनों दुष्काल के चलते लोग भूखे मर रहे थे। उस समय की सामाजिक स्थिति इस तरह की थी कि सड़क पर जब दलित निकलते थे तब उन्हें बार-बार आवाज लगानी होती थी, अन्नदाता! अन्नदाता ! ताकि सवर्ण रास्ते से हट जाएं उन पर दलित की छाया न पड़े। गांधीजी के गुरुवायूर मंदिर में हरिजन प्रवेश से प्रभावित होकर सहभोज कराने पर विचार किया। उन्होंने अखबारों में भीलों को असली अन्नदाता बताते हुए लेख लिखा, जिसके कारण उन पर मुकदमा दर्ज किया गया।
बालेश्वर दयाल ने झाबुआ में शराब और बेगार के खिलाफ संघर्ष शुरू किया। 1932 – 37 के बीच उन्हें तीन बार जेल में बंद किया गया।
मध्य प्रदेश और राजस्थान की तमाम रियासतों में जो कानून लागू था उसमें बेगार नहीं करने को अपराध माना गया था।
बालेश्वर दयाल ने यह देखा कि बेगार के चलते वहां 90% आदिवासी ईसाई बन गए थे।
थांदला में रहते हुए उन्हें पता चला कि जो लोग ईसाई हो गए हैं उन्हें बेगार नहीं करनी पड़ती। बालेश्वर दयाल ने बेगार के खिलाफ सतत संघर्ष किया। झाबुआ के राजा ने 1937 में उन्हें रियासत से निष्कासित कर दिया। तब इंदौर स्टेट की सरहद पर बामनिया गांव में बालेश्वर दयाल ने भीलों के लिए आश्रम खोला तथा आदिवासियों को वहां पढ़ाना शुरू किया। आश्रम में पढ़ाया जाता था तथा बच्चे भी वहां रहते थे। बाद में वही डूंगर विद्यापीठ की स्थापना की जो 13 पाठशालाएं और दो आश्रमों का संचालन किया।
बालेश्वर दयाल के अनुसार रियासतों में अग्रेजों के खिलाफ आंदोलनकारियों की मीटिंगों में घोड़े दौड़ाएं जाते थे, चाबुक मारे जाते थे। उन्होंने यह भी बताया कि 1942 के आंदोलन में आदिवासियों ने पटरियां उखाड़ी, रेलगाड़ियां गिराई मुकदमे उनपर पर चले।
साक्षात्कार में बालेश्वर दयाल ने बताया था कि गांधीजी को उन्होंने एक बार इटावा कॉलेज में तब देखा था जब गांधीजी रेलगाड़ी से इटावा से निकल रहे थे तथा छात्रों ने ट्रेन को रोककर प्लेटफॉर्म पर उनकी सभा कराई थी । उन्हें 63 रूपये की थैली भेंट की थी । 1939 में त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन में बालेश्वर दयाल ने गांधीजी को दूसरी बार देखा था।
बालेश्वर दयाल के अनुसार उन्होंने इटावा में पहली बार जवाहरलाल नेहरू को देखा था और उनका भाषण भी सुना था। 1946 में जब रतलाम में गोली चली तब बालेश्वर दयाल ने जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखा और कहा कि आप गोली चालन के खिलाफ बयान दीजिए तथा रतलाम स्टेट के दीवान को हटाने की मांग के साथ-साथ गोलीकांड की जांच की मांग कीजिए। जवाहरलाल नेहरू ने गोली कांड की जांच का संचालक बालेश्वर दयाल को ही बना दिया। कांग्रेस के सक्रिय सदस्य को जज बनाकर रतलाम भेजा गया। जब बालेश्वर दयाल को यह पता चला कि जज कन्हैयालाल मुंशी गोली चालन के पक्ष में थे तो उन्होंने जज के खिलाफ अविश्वास प्रकट करते हुए उनके कोर्ट में जाने से इंकार कर दिया। गवाहियों के माध्यम से बालेश्वर दयाल ने अपने मुद्दे जनता के बीच पहुंचाएं तथा यह साबित कर दिया कि गोली चली थी, लोग मारे गए थे, जिनके हाथ में कोई हथियार या पत्थर नहीं थे।
जब बामनिया में इंदौर स्टेट में बालेश्वर दयाल को निर्वासित किया तब उन्होंने फिर जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखा। जवाहरलाल ने बालेश्वर दयाल को श्रीनगर बुलाया, शेख अब्दुल्ला ने अपने हाउसबोट में बालेश्वर दयाल को ठहराया। तब कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आजाद ने इंदौर स्टेट को चिट्ठी लिखी।
15 अगस्त 1947 को देश आजाद होने के बाद 17 अगस्त को इंदौर स्टेट ने बलेश्वर दयाल के निर्वासन को निरस्त कर दिया गया, तब वे बामनिया वापस आ गए।
साक्षात्कार में बालेश्वर दयाल ने जवाहरलाल नेहरू के साथ चर्चा के बारे में बताया कि पंडित जी ने कहा कि जागीरदार और व्यापारी कांग्रेस के सदस्य बन गए हैं, जो पहले राजा की शरण में रहते थे अब वे कांग्रेस की आड़ में भीलों को प्रताड़ित कर रहे हैं। बालेश्वर दयाल ने साहूकारी लेनदेन के मामले को भी पंडित जी के सामने रखा। तब उन्होंने कहा कि आप 1 वर्ष बाद याद दिलाना, जागीरदारी को जरूर समाप्त करेंगे। बालेश्वर दयाल ने 1949 में चिट्ठी लिखकर पंडित जी को याद दिलाया तथा नो टैक्स कैंपेन अर्थात लगान नहीं देने का अभियान शुरू कर दिया। जिसका व्यापक असर मध्य प्रदेश और राजस्थान में हुआ। उदयपुर में बालेश्वर दयाल को गिरफ्तार कर लिया गया। टोंक ,जो एक नवाब की स्टेट थी, वहां 8 महीने तक जेल में रखा गया। तब राजगोपालाचारी ने हस्तक्षेप किया । अध्यादेश निकालकर राजस्थान और मध्य भारत में जहां-जहां जागीरदारी के खिलाफ आंदोलन चल रहा था, वहां जागीरदारी समाप्त कर दी। बालेश्वर दयाल ने साक्षात्कार में बताया कि उन्होंने 1948 में यदि कांग्रेस नहीं छोड़ी होती तो जागीरदारी के खिलाफ आंदोलन नहीं चल सकता क्योंकि प्रजामंडल में बहुत सारे जागीरदार थे तथा वे आंदोलन के खिलाफ थे। उन्होंने यह भी बताया कि 1948 में जब उन्हें जागीर आंदोलन का नोटिस दिया था तब उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया था। आंदोलन के दौरान जयप्रकाश नारायण बामनिया आए थे।
1950 में बालेश्वर दयाल इंदौर के सम्मेलन में सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुए। उसके बाद तीन बार जयप्रकाश बामनिया आए । लोहिया जी से ज्यादा संपर्क 1952 के बाद ही हुआ। जयप्रकाश नारायण 1949 – 50-53 में बामनिया आए। बामणिया में 1953 में अखिल भारतीय वनवासी सम्मेलन किया जिसमें डॉक्टर लोहिया आए तथा 3 दिन तक रहे। तब डॉक्टर लोहिया आदिवासियों के साथ नाचे भी थे । 1945 में दाहोद में एक मीटिंग में आचार्य नरेंद्र देव जी आए थे, बामनिया में गोली भी चली थी। तब भी आचार्य जी आए थे उस समय भी जांच हुई थी। 1952 के बाद भी बालेश्वर दयाल को पुराना कर्जा माफ कराने के लिए आंदोलन चलाना पड़ा, जेल भी जाना पड़ा।
बालेश्वर दयाल के अनुसार झाबुआ जिले में जब 1952 के आम चुनाव में मध्य भारत असेंबली के लिए उन्होंने 4 उम्मीदवार खड़े किए थे उसमें से एक आदिवासी महिला उम्मीदवार जमुनादेवी भी थी। उस समय कांग्रेस ने महिला उम्मीदवार का मजाक उड़ाया लेकिन महिला की जीत से डॉक्टर लोहिया सर्वाधिक प्रभावित हुए ।
साक्षात्कार से यह स्पष्ट होता है कि बामनिया मामा बालेश्वर दयाल जी के कारण स्वतंत्रता आंदोलन और समाजवादी आंदोलन का केंद्र बन गया था।
मामाजी के चलते ही बेगारी प्रथा और जागीरदारी प्रथा समाप्त हुई थी।
आज भी मामाजी की समाधि पर आने वाले अनुयायी शराब से परहेज करते हैं।
स्वतंत्रता सेनानी और समाजसुधारक के तौर पर मध्यप्रदेश ,राजस्थान और गुजरात के भील बाहुल्य इलाकों में मामाजी को महामानव को देवता तुल्य माना जाता है ।
यही कारण है कि मामाजी की 250 से ज्यादा मूर्तियां आदिवासियों ने इस इलाके में स्थापित की हैं।