प्रोफेसर राजकुमार जैन
अक्सर यह देखा गया है कि जब आदमी किसी पद, प्रधानमंत्री से लेकर स्थानीय म्युनिसिपल कॉरपोरेटर और केंद्र में सचिव पदसे लेकर राज्य के हेड क्लर्क तक यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर से चलकर हेड ऑफ डिपार्टमेंट के पद पर विराजमान होता है तो उसकी तारीफ के पुल बांधे जाते हैं, हुक्मरानों की शान में उनके सामने तारीफों के कसीदे पढ़े जाते हैं, और जरा सत्ता गई या व्यक्ति पद से हटा तो तारीफ करने वाले ऐसा भूल जाते हैं कि उस इंसान या उसके नाम को जानते ही नहीं। परन्तु तस्वीर का दूसरा रूप भी है आदर्श त्याग ज्ञान की बिना पर उसको मानने वाले ताउम्र उसके पीछेचलते हैउसका गुणगान करते हैं।
ऐसी ही कहानी मेरे मित्र, साथी,राजनीति प्रसाद की है।
स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा ज्ञान, त्याग, संघर्ष के प्रतीक, उद्भट्ट विद्वान तमाम उम्र सोशलिस्ट तंजीम के लिए अपनी जिंदगी खपाने वाले सोशलिस्ट नेता मधुलिमए का इंतकाल हुए 27 साल गुजर चुके हैं, जैसे कर्मकांडी हिंदुस्तानी जैविक पितरों की याद में अपनी फर्ज अदायगी करता है उसी तरह राजनीति प्रसाद मुसलसल मधुलिमए की याद में यादगार दिवस किसी न किसी रूप में मनाते चले आ रहे हैं। पटना हाईकोर्ट के अनुभवी वकील होने के साथ-साथ एक वैचारिक प्रतिबद्ध सोशलिस्ट भी हैं मधुलिमए की याद में हर साल होने वाले आयोजन को साथी राजनीति और उनके साथी बड़े व्यापक स्तर पर आयोजित करते रहे हैं, उसमें अन्य लोगों के साथ साथ लालू प्रसाद यादव भी शिरकत करते रहे हैं साथी लालू प्रसाद यादव ने महसूस किया होगा की कि आज मधुलिमए जिंदा भी नहीं है उसके बावजूद राजनीति प्रसाद हमारे नेता मधुजी की याद बनाएं रखने का कार्य करते है, उससे प्रभावित होकर उन्होंन राजनीति को राज्यसभा का सदस्य बनवा दिया। संसद में मौजूद उस समय के सोशलिस्ट सदस्यों ने इस कार्य के लिए लालू यादव की तारीफ करते हुए कहा कि लालू भाई ने एक प्रतिबद्ध कार्यकर्ता को संसद में भेजकर बहुत अच्छी नजीर पेश की है ।आजकल सुनने में आता है की एक राज्यसभा सदस्यता के लिए 50- 100 करोड़ रुपया खर्च करके राज्यसभा की सदस्यता पाने का धंधा भी चल रहा है।
राजनीति उन लोगों में है जो
के निकट के अनुयायी रहे है, जैसा नेता था, वैसा ही उसका अनुयायी निकला।
मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं कि जिस समय मधुजी बिहार की धरती पर पहुंचते थे तो रेलवे स्टेशन हवाई अड्डे पर दिन हो या रात, सुबह हो या शाम,तो राजनीति रुक ही नहीं सकते थे, पहुंचते थे। मधुजी के बिहार प्रवास के समय साए की तरह वे मधु जी के साथ रहते थे। मैं इस बात से भी वाकिफ हूं कि उन्होंने कभी इसके बदले में कभी कुछ नहीं मांगा, चाहा नही। यह केवल अपने इष्ट की भक्ति थी। मधुजी राजनीति प्रसाद से कितना लगाव रखते थे इसके भी कई उदाहरण मुझे याद है। एक बार वे बिहार से दिल्ली आए ,मधुजी के घर पर पहुंचे, मैं भी वहां पर मौजूद था मधुजी ने पूछा राजनीति तुम्हारा बैग कहां है तो उन्होंने कहा कि रेलवे स्टेशन के लॉकर में जमा करवा कर आया हूं। मधुजी नाराज हो गए, जाओ पहले समान लेकर आओ। मधुजी के सरकारी दो कमरे के एक छोटे से फ्लैट में, एक में चंपा जी तथा दूसरे में चंपा जी के साथ आए कोई मेहमान ठहरा हुआ था, मधुजी ने उनसे कहा यही मेेरे कमरे में तुम अपना आसन लगा लो परंतु राजनीति मकान में दाखिल होते ही बहुत ही छोटी सी गैलरी में जिसमें बेंतकी की कुर्सियां तथा मेज और जूते चप्पल रखे होते थे, सामान ले कर उधर चले और मधु जी उनका हाथ पकड़ कर कमरे की ओर जाने की हिदायत देते रहे, क्या अद्भुत नजारा था। मैं जानता हूं कि मधुजी अपने निजी जीवन में जितनी पवित्रता बरतते थे उतनी ही अपेक्षा वे अपने निकट के व्यक्ति से करते थे। बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों के धनपतियों का उस घर में प्रवेश संभव नहीं था, देश दुनिया के मशहूर मारूफ सियासतदानों, प्रधानमंत्री, मंत्री, राजदूत, मुख्यमंत्री, बड़े से बड़े सरकारी अधिकारी से लेकर नामवर समााचार पत्रों के संपादक, आर्थिक, विदेशी नीतियों के जानकार, विश्वविद्यालयों के बुद्धिजीवी, विभिन्न कलाओं के फनकार, राजनीतिक कार्यकर्ता मधुजी से मार्गदर्शन लेने के लिए जुटते थे। घर में ना तो कोई फ्रिज था नाही एयर कंडीशनर, कूलर, टेलीविजन, घड़े में रखा हुआ पानी और हाथ और बिजली से चलने वाले पंखे तथा पुराने जमाने का संगीत सुनने का एक टेप रिकॉर्डर उस घर की कुल संपत्ति थी। आने वालों के लिए अपने हाथ से बनाकर कॉफी या चंपा जी द्वारा मुंबई में बनाई गई नमकीन और किसी के द्वारा लाई गई या भेजी गई मिठाई खाने को मिल जाती थी। मेरे जैसे कार्यकर्ताओं को कभी-कभी उनके हाथ से बनाई हुई खिचड़ी का भोग लगाने को भी मिल जाता था। आवागमन के लिए क्या तो अनुयायियों, मित्रों, टैक्सी बगैरहा और कभी कभी मेरे स्कूटर की सवारी मौजूद रहती थी।
साथी राजनीति एक सोशलिस्ट रहबर की संगत से अपने को धन्य मांग रहे थे वही मधु जी उसकी निस्वार्थ, सादगी, ईमानदारी, भक्ति के कायल हो गए थे। बरसों बरस बाद भी यादगार दिवस मना कर मेरे मित्र को जो आत्मिक सुख- संतोष मिल रहा है उसके सामने अन्य सुख -साधन कि कोई अहमियत नहीं है।