Friday, November 8, 2024
spot_img
Homeअन्य'अगर कोई मर गया है, तो आर्डर करें'

‘अगर कोई मर गया है, तो आर्डर करें’

प्रोफेसर राजकुमार जैन

सुखांत फ्यूनरल मैनेजमेंट प्राइवेट लिमिटेड, का विज्ञापन पढ़ने को मिला। जब हर चीज पैकेज में ऑनलाइन घर बैठे मिलने लगी है तो अंतिम क्रिया का भी व्यापार चालू हो गया। रिश्ते निभाने की कुछ वाजिब मजबूरियां परंतु अधिकतर गैर सामाजिकता के कारण दिवंगत हुए इंसान की लाश के संस्कार कराने, के लिए पंडित, कफन का सामान, दाह क्रिया की सामग्री, अर्थी को कंधा देने, ‘राम नाम सत्य है, सत्य बोलो गत है ‘हरि का नाम सत्य हैl बोलने वाले, ,अर्थी के साथ शमशान घाट जाने, क्रिया होने के बाद अस्थियों को नदी में प्रवाहित करने, उठावनी वह उठाला के दिन पंडित के प्रवचन, तथा सुना है की सफेद लिबास में बैठी कुछ औरतों द्वारा रोने का दृश्य उपस्थित करने का इंतजाम भी किए जाने की व्यवस्था है। बताया जाता है कि यह लाखो का कारोबार बन चुका है, और अंदाजा है कि बढ़ती हुई मांग के कारण यह करोड़ो का व्यापार भी बन सकता है। हालांकि अभी यह शुरुआती दौर में है।
आज की आपाधापी, के इस दौर में दूसरे के सिर पर चढ़कर आगे निकलने की होड़ और किसी तरह भी बेशुमार दौलत और शोहरत पाने की भूख इंसानी रिश्तों में भी साफ झलकने लगी है। रिश्तो में महज एक औपचारिकता, दिखावा और हद तो यहां तक है की ‘गमी’ के मौके पर भी सफेद ड्रेस कोड, प्रसाद के नाम पर दावत वाला खाना, अपनी शान शौकत दिखाने का अवसर में तब्दील कर दिया।
.मगर इसकी दूसरी तस्वीर भी है। मैंने दिल्ली शहर के चांदनी चौक तथा जामा मस्जिद इलाके की शव यात्राओं तथा कब्रिस्तान में दफन करने के लिए जा रही मय्यत में भाग लेकर देखा तथा उसको लिखा भी है।
एक वक्त था कि गांव हो या शहर इंसान की मौत हो जाने पर घरवालों, रिश्तेंदारों पड़ौसियों के यहाँ मातमी माहौल हो जाता था। गली मौहल्ले आस-पड़ोस में जब तक लाश को दफनाने, जलाने गए लोग घर वापिस नहीं आ जाते तथा घर में मौज़ूद औरतों को अपने-अपने घरों में भेज नहीं देते थे, तब तक पड़ोसी के घर में चूल्हा नहीं जलता था। जिसके घर में ‘गमी’ हुई है उसके घर में तो चूल्हां जलता ही नहीं था। रिश्तेदार, आस-पड़ोस वाले अपने घर से खाना बनवाकर ग़मज़दा घरवालों को ‘कुछ तो खालो’ कहकर खाने पर मजबूर करते थे।
माहौल में कितना बदलाव आया, नयी नस्ल के लोग इसका अंदाज़ा नहीं लगा सकते। आज हम देखते हैं कि पड़ौसी के बर्ताव से ऐसा लगता है कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
अर्थी उठाने वाले चार आदमी भी मौज़ूद नहीं हैं। एम्बुेलेंस वाले को यह कहकर बुलाया जाता है कि लाश तीसरी या चौथी मंजिल पर है, आपको ही उसे उतारना है तथा मूर्दघाट तक लेकर चलना है। कई बार ऐसा हुआ कि किसी जानकार का टेलीफोन आया कि भाई साहब आप आ जाओ, हमें नहीं पता कि क्रिया कैसे होगी?
सवाल उठता है कि ऐसे हालात कैसे पैदा हुए?
इसी दिल्ली शहर में मैंने देखा है कि गली मौहल्लेे में किसी की मौत हो जाती तो उसकी अर्थी निकलते वक्त ‘राम नाम सत्य‍ है, सत्य बोलो गत है’ की आवाज़ घर में बैठा हुआ इंसान सुनता तो तेज़ी से अपनी खिड़की दरवाज़े खोलकर अर्थी के साथ चल रहे किसी आदमी से पूछता कि भाई किसका स्वर्गवास हो गया, अर्थी के पीछे तेज़ कदम से चलता आदमी बताता, फलाने आदमी का, सुनने वाला आदमी फटाफट लूँगी, पायजामा, कमीज बनियान या जो भी कपड़ा सामने हो पहनता हुआ अपने कंधे पर अंगौछा डालकर घर वालों से कहता कि मैं ‘जमना जी’ जा रहा हूँ (यमुना), जमुना जाने का सीधा-सीधा अर्थ था, मूर्दघाट क्यों कि वह यमुना के किनारे है। एक डेढ़ घंटे में लौटूंगा। मौहल्लेे के बाहर आते-आते शवयात्रा में तकरीबन, मौहल्ले के सभी लोग शामिल हो जाते, भीड़ बढ़ती जाती तथा उनकी कोशिश होती कि एक बार तो मैं भी अर्थी में कंधा लगा लूं। अपने तो जाते ही थे, परंतु दुश्मन भी शिरकत करते थे। पंजाबी के कवि, गायक आशा सिंह मस्ताना का अति प्रसिद्ध लोकगीत –
जदों मेरी अर्थी उठाके चलनगे,
मेरे यार सब हुनहूना के चलनगे
यह वखरी है गल वे मुस्कुराकर चलेंगे।
शमशान घाट में साथ आए हुए लोग, शव को जलाने के लिए अपने हाथों से लकड़ी लगाने की परंपरा को अवश्यक निभाते। शमशान घाट पर अर्थी को तोड़कर उसमें लगे लंबे बास से कपाल क्रिया की जाती। शव के जल जाने के बाद, लोग वापिस अपने घरों को लौटते।
यह आँखों देखा हाल मैंने चाँदनी चौक के हिंदू इलाकों का किया है। यही हाल कमोवेश, मुस्लिम असरियत वाले जामा मस्जिद, बल्लीमारान, बाड़ा हिंदू राव की मुस्लिम बस्तियों की मैय्यत में देखा है।
मौहल्ले में किसी का भी इंतकाल होने पर लोग ‘गमी’ वाले घर पर जुटना शुरू हो जाते थे।
घर के बाहर कुर्सियाँ रख दी जाती थी। मुर्दे को कब्रिस्ता्न ले जाने के लिए लकड़ी से बना मज़बूत तख्त नुमा ‘मसेहरी’ (अर्थी) जिसके चारों तरफ़ हिफाजत के लिए 8-9 इंच की चार दीवारी बनी होती है, जो खोली भी जा सकती है ताकि हिलने डुलने पर भी मुर्दा बाहर की ओर न जा सके। कब्रिस्ताबन पर दफनाने के बाद यह मसेहरी मस्जिद में आगे के इस्तेमाल के लिए पहुँचा दी जाती है।
हिंदू अर्थी में शव को गिरने से बचाने के लिए सुतली से अच्छी तरह बांधा जाता है परंतु मुस्लिम मुर्दे को बांधा नहीं जाता। मुसलमानों में मजहबी रवायत है कि जनाजे में साथ चलने वाले इंसान को हर एक कदम पर 10 नेकी का शवाब मिलता है, अर्थात् 40 कदम साथ चलने पर 400 नेकियों का शवाब मिलेगा। ज्यों ज्यों जनाजा आगे बढ़ता है, हर मुसलमान 40 कदम साथ चलना अपना मजहबी फर्ज समझता है, जिसकी वजह से अच्छे खासे लोग जमा हो जाते हैं।
कंधे पर ले जा रहे जनाजे पर हर आदमी की कोशिश रहती है कि वो भी कंधा दे। कब्रिस्ताज से पहले रास्ते में पड़ने वाली मस्जिद के सामने जनाजे की नमाज पढ़कर मरहूम हुए इंसान के लिए खुदा से दुआ की जाती है कि वो मरहूम के गुनाह माफ कर उसको जन्नत में जगह दे।
मुरदनी में कब्रिस्ता‍न जाने वाला हर इंसान, कब्र में मुर्दे को रखकर अपने दोनों हाथों से तीन बार मिट्टी डालकर दुआ करता है। रवायत है कि 40 दिनों तक मरहूम के घर पर कुरान ख्वांनी (पाठ) की जाती है।
कहने का मकसद है कि क्याा हिंदू क्याा मुसलमान या किसी और मजहब को मानने वाले पहले दु:ख की इस घड़ी में कई दिनों तक हादसे वाले घरों में जाकर इस बात का एहसास कराते थे कि तुम अकेले नहीं हो हम तुम्हाारे गम में बराबर के शरीक है। परंतु आज हालात बदल गए हैं, शहरीकरण व भौतिक जगत की भागदौड़ तथा इंसानों का अपने तक ही महदूद रहने की जहनियत, सर्दी में रजाई, गर्मी में ए॰सी॰ में बैठा आदमी मुरदनी में जाने से कतराता है। पड़ोस में हुए हादसे पर उसका बेरुखी का रुख रहता है। सीधी सी बात है , जब मैं दूसरे के दु:ख में शामिल नहीं हूंगा तो मेरे दु:ख में वे क्यों साथ आएँगे।
हालाँकि यह मंजर अधिकतर शहरी सभ्यता में ही देखने को मिलता है। गाँव देहात में अभी भी काफी हद तक सामूहिकता की परंपरा गांव में मौत हो जाने के बाद शमशान घाट पर क्रिया करने के लिए जाने वाले लोग अपने साथ सूखी लकड़ी व चीनी ले जाते हैं क्योंकि वहां पर शहर के श्मशान घाटो की तरह लकड़ी का बंदोबस्त नहीं होता। हिंदुओं में कमोबेश एक रिवाज रहा है कि तेरह दिन तक मरने वाले की याद और सदगति के लिए पूजा पाठ लोगों का आना जाना बना रहता था। परंतु आज के व्यापारी तथा नौकरीपेशा तबकों के पास इतना वक्त नहीं है कि तेरह दिन तक वो इंतज़ार करें। इंतकाल होने के एक-दो दिन के बाद ही अंतिम क्रिया पूरी करके, रोजमर्रा की जिंदगी शुरू हो जाती है। परंतु आज भी ऐसी जातियाँ/समूह है जो पुरानी रवायत को निभाते है दिल्ली की गूजर बिरादरी अभी भी तेरह दिन का शोक मनाती है।13 दिन मुसलसल रिश्तेोदार, पड़ोसी यार दोस्त उनके घर आते जाते रहते है। घर के बाहर पानी भरी बाल्टी में नीम के पत्ते पड़े होते हैं, आने वाले लोग उस पानी से ‘कुल्लाा’ करते है। तेरह दिन बाद हवन तथा ब्राह्मणों को भोजन करवाकर इस परंपरा का निर्वाह होता है।
बदलती हुई परिस्थितियों, मजबूरियों में इन रीतिरिवाजों में बदलाव होना लाजमी है परंतु सामाजिक संवेदना जिसमें पड़ोसी का दु:ख मेरा दु:ख जैसी मैत्री-भावना नहीं है। अगर थोड़ी बहुत है भी तो केवल औपचारिक रूप में। एक ओर मंजर दिल्ली में देखने को मिल रहा है। शादी-विवाह, मांगलिक अवसरों पर सैकड़ों-हज़ारों लोगों की हाजरी व शानशौकत देखकर लगेगा कि यह शहर का बड़ा रसूक वाला आदमी है, परंतु अगर उसके घर में मौत हो जाए तो रात को मुर्दे के साथ बैठने वालों में केवल घर के चंद लोग ही मिलेंगेा। मुरदनी में भाग लेने वाले घर पर अर्थी उठाने के लिए नहीं सीधे शमशान घाट या कब्रिस्ताान में पता लगाकर पहुँचेंगे कि आखिरी क्रिया में कितनी देर है।
इंसानी रिश्तोंे में सब कुछ महज एक औपचारिकता बनती जा रही है। मेरे अजीज दोस्त् पुरुषोतम दास ने एक ग़ज़ल किसी मौके पर सुनाई थी जिसमें शायर कमर जलालबी का एक शेर है –
दबाके कब्र में सब चल दिये
दुआ न सलाम ज़रा सी देर में क्या हो गया, ज़माने को।
तो लगता है कि आज की हक़ीक़त यही है।

RELATED ARTICLES

Most Popular

Recent Comments