Friday, November 22, 2024
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Manipur Violence : महिला सुरक्षा की लड़ाई से राजनीति को दूर रखिए

अब यौन हिंसा नियमित घटना सी हो गई है, लेकिन इसकी निंदा हमारे राजनीतिक झुकाव के आधार पर ही सामने आती है”

नमिता भंडारे

कुछ लोग किसी भी प्रकार की हिंसा की बात उठने पर अपनी रणनीति के अनुरूप ही सवाल उठाते हैं। मणिपुर की बात होती है, तो पूछने लगते हैं राजस्थान के बारे में क्या, पश्चिम बंगाल के बारे में क्या? इस पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ का जवाब है, ‘हम सांप्रदायिकता और सांप्रदायिक संघर्ष में महिलाओं के खिलाफ अभूतपूर्व हिंसा से निपट रहे हैं।’ उन्होंने मणिपुर में निर्मम हिंसा पर एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए यह बात कही है। सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिका में यौन हिंसा की 11 घटनाओं की ओर इशारा किया गया है, जैसा कि प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) में दर्ज किया गया है। इनमें इंफाल में कार धोने का काम करने वाली दो महिलाओं का बलात्कार और हत्या का मामला शामिल है।

पोरोम्पैट में नाइटिंगेल नर्सिंग इंस्टीटॺूट की दो छात्राओं का मामला शामिल है, जहां पुरुष चिल्ला रहे थे, इनका बलात्कार करो, इन्हें यातनाएं दो। इसमें फेइताइचिंग गांव में 45 वर्षीय महिला का अधजला, निर्वस्त्र शरीर पाया जाना और 15 मई को 18 साल की लड़की का अपहरण व सामूहिक बलात्कार का मामला भी शामिल है।  मणिपुर की ये दुखद घटनाएं देश के बाकी हिस्सों में होने वाली यौन हिंसा से केवल इसलिए अलग हैं, क्योंकि इन सभी मामलों में पीड़ित कुकी महिलाएं हैं, जिन्हें मैतेई समुदाय की भीड़ ने निशाना बनाया और उनके साथ क्रूरता की।

संयुक्त राष्ट्र संगठन के विभिन्न नियम-कायदे और यहां तक कि हमारी दंड संहिता भी इन्हें धारा 376(2)(जी) के तहत एक अलग अपराध के रूप में मान्यता देती है। भारत के प्रधान न्यायाधीश की यह टिप्पणी अधिवक्ता बांसुरी स्वराज पर निर्देशित थी और मुझे दिल्ली में दिसंबर 2012 के सामूहिक बलात्कार कांड मामले पर संसद में उनकी मां सुषमा स्वराज द्वारा जताई गई पीड़ा की याद आ गई। मैं सुषमा स्वराज के इस बयान से आज भी सहमत नहीं हूं कि अगर 23 वर्षीया छात्रा (निर्भया) गंभीर चोटों से किसी तरह बच भी जाती, तो भी वह जिंदा लाश के समान ही होती। समान भाव से देखें, तो एक दशक के अंतराल पर हुए दोनों महिला संबंधी अपराधों की तुलना नहीं की जा सकती। वह एक युवती के खिलाफ किया गया भयानक अपराध था। ताजा मामले में कुकी महिलाओं को चुनकर निशाना बनाया गया है और इसमें पुलिस की भी कथित मिलीभगत की शिकायत सामने आ रही है। यह पुलिस उस राज्य के मैतेई मुख्यमंत्री को रिपोर्ट करती है। शीर्ष अदालत के प्रधान न्यायाधीश को यहां फिर उद्धृत करें, तो उन्होंने साफ इशारा किया कि मणिपुर में सांविधानिक तंत्र नष्ट हो चुका है।
यदि मणिपुर में दो महिलाओं के साथ हुई ज्यादती की किसी से तुलना की जाए, तो बिलकिस बानो मामले से की जा सकती है। ध्यान रहे, साल 2002 के गुजरात दंगों के दौरान बिलकिस के साथ बलात्कार और उसके परिवार के सदस्यों की हत्या करने वाले 11 लोगों को सजा में दी गई छूट को चुनौती देने वाली याचिका अभी शीर्ष अदालत में लंबित है।

साल 2013 के बाद के दशक ने एक और अंतर को रेखांकित किया है। कहा जाता है, हम ऐसे दुखद दौर में आ गए हैं, जहां महिलाओं और लड़कियों के विरुद्ध यौन हिंसा नियमित सी हो गई है, लेकिन इसकी हमारे द्वारा की जाने वाली निंदा हमारे राजनीतिक झुकाव के आधार पर ही सामने आती है। हमने देखा है, कठुआ में दोषी ठहराए गए बलात्कारियों व हत्यारों के पक्ष में बार एसोसिएशन भी प्रदर्शन कर सकता है। उधर, केरल में पांच साल की बच्ची के साथ बलात्कार व हत्या का मामला  भाजपा के लिए भारतीय राष्ट्रीय विकासात्मक समावेशी गठबंधन (इंडिया) की कमियों का मजाक उड़ाने का अवसर है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि कांग्रेस ने मणिपुर सरकार की आलोचना की थी। मतलब, अब सियासी हमला चुन-चुनकर किया जा रहा है।

आज यौन हिंसा हमारे देश की दुखद सच्चाई है, लेकिन राजनीतिक एजेंडे के अनुरूप अपने आक्रोश और गुस्से को चुनना हमारे नैतिक विवेक की कमी की ओर इशारा करता है। सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप और दोटूक टिप्पणियों का स्वागत है, लेकिन सिर्फ इतना ही हमारे विवेक की रक्षा के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता।

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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