– दिल्ली दर्पण ब्यूरो
दिल्ली। दिल्ली पुलिस में पैसे लेकर एसएचओ लगाने का आरोपों पर दिल्ली पुलिस महकमे में हड़कंप जरूर मचा और मामला शांत भी हो गया लेकिन इन घटना ने उन चर्चाओं और कयासों को जरूर मजबूत किया है जिसमें कहा जाता है की दिल्ली पुलिस में पैसे लेकर एसएचओ लगाने का खेल वर्षों से चला आ रहा है। यहाँ के थानों का बाकायदा रेट तय होता है कि किस थाने में एसएचओ लगाने का क्या रेट है। 30 दिसंबर को हुयी इस घटना में बाकायदा आरोप लगाने वाले इंस्पेक्टरों ने पीसीआर कॉल भी की थी , यह बात अलग है की उस कॉल को ग्रीन चिट दे दिया गया और उसे सेंट्रल कमांड रिकॉर्ड तक में भी दर्ज़ नहीं किया गया। दिल्ली पुलिस के इतिहास में यह पहली बार इतना बड़ा संगीन आरोप खुलकर लगा है। लिहाज़ा इस मामले की उच्चस्तरीय जांच तो होनी ही चाहिए बल्कि ग्रह मंत्रालय को भी इस पर संज्ञान लेना चाहिए। साथ ही उस स्टेंडिंग आदेश पर भी मंथन करने की जरूरत है जिसमें किसी भी एसएचओ को 3 वर्ष से ज्यादा नहीं लगाने की बात कही गयी हो।
इस सबके बीच यह चर्चा भी चल निकली है की आखिर दिल्ली पुलिस में एसएचओ लगाने का पैमाना क्या हो ? दिल्ली में एसएचओ लगाने के लिए पांच सदस्य स्पेशल सीपी की स्क्रीन कमेटी बनाई गयी है लेकिन दिल्ली पुलिस में बचे कुछ ईमानदार अफसरों और दिल्ली पुलिस पर पैनी नजर रखने वाले पत्रकारों के बीच यह चर्चा है की यह स्क्रीन कमेटी क्या यह सुनिश्चित कर सकेगी की ऐसे आरोप दिल्ली पुलिस पर ना ले सकें। यह तो सोचना ही होगा कि आखिर यह घटना सामने आयी क्यों ?
ये घटनाक्रम नतीजा हो सकता है इन बातों का : –
1 -किस इंस्पेक्टर की व्यक्तिगत जांच ( इनफॉर्मल ) पड़ताल किये बिना क्या केवल “करेक्टर रोल ” रखकर मैरिट बनाई जानी चाहिए ? यदि ऐसा हुआ और वह इंस्पेक्टर क्लीन रिकॉर्ड वाला हुआ तो हो सकता है :-
( A ) वह हमेशा काम करने से बचता रहा हो। सब-इंस्पेक्टर समय से ही वह फील्ड में रहा ही ना हो अगर ऐसा हुआ तो उसका रिकॉर्ड क्लीन ही होगा।
( B ) यह भी संभव है कि संबंधित इंस्पेक्टर भ्रष्ट हो और अपने छवि रिकॉर्ड पर आने ही नहीं दी हो। ऐसे में उसके बारे में सही छवि की इंक्वायरी उसके पुराने और वर्तमान अधिकारियों से पूछकर आसानी से की जा सकती है।
इसमें अब यहाँ पेच है:-
-आप कहेंगे कि जब फील्ड में रहा नहीं तो उसे एक मौका दिये बिना रिजेक्ट कैसे करें?
– क्या रिकॉर्ड को दरकिनार कर दिया जाए?
दोनों बिंदुओं का जवाब है कि ना तो आंख बंद करके रेवड़ी की तरह “केवल” रिकॉर्ड देखकर टेस्टिंग करनी चाहिए और ना ही रिकॉर्ड को दरकिनार करना चाहिए ।
आवश्यकता केवल ये समझने की है कि :-
– जो काम करेगा, तो गलती भी होगी। लेकिन क्या काम करते हुए छोटी मोटी गलती के चलते उसे आप रेस से बाहर कर देंगे?
क्या ये चेक नहीं करोगे कि वो सजा उसे रुटीन मैटर में मिली है या फिर भ्रष्टाचार का कोई आरोप था।
तो नम्बर एक – अगर भ्रष्टाचार का आरोप नहीं है और इंस्पेक्टर फील्ड में काम करता रहा है तो छोटी मोटी सजा जैसे कोर्ट में लेट जाना, रिपोर्ट या चालान लेट दाखिल करना आदि बाबत सजा को सजा मानकर रिकॉर्ड खराब समझना एक काबिल ईमानदार अफसर को रेस से बाहर करके ऐसी खरीद फरोख्त को बढावा देना होगा ।
क्योंकि बोली वही लगाएंगे जो लायक नहीं हैं और सब इंस्पेक्टर रहते काम किया नहीं लेकिन उसे SHO लगना है।
या बिना बोली भी ऐसे लोगों को लगाने का अर्थ है “अब तक काम ना करने की सजा की बजाय रिवार्ड देना और ” No work, No mistake, No tension ” को बढ़ावा । आम लोगों के सामने, कोर्ट में, आयोग में दिल्ली पुलिस को निकम्मा साबित करना, जो आजकल हो रहा है । SHO इन जगहों पर, अपने सीनियर व मातहतों को साफ बोल रहे हैं कि हमने कभी Investigation की ही नहीं सो हमें ये काम नहीं आता।
अब काम ना आने की कीमत हर उस आम नागरिक और पीड़ित को भुगतनी है जो न्याय और सुरक्षा पाने की उम्मीद में हिम्मत दिखाकर पुलिस थाने आतें है, लेकिन ऐसा होता नहीं। क्योकि “ऐसे काम ना आने वाले लोग ” चाहे ईमानदार हों या बेईमान जब किसी केस या PCR काल को Handle करते हैं तो या तो Victim को अपने जूनियर्स के रहमोकरम पर छोड़ देते हैं या जाने अनजाने अनर्थ कर डालते हैं । दोनों परिस्थितियों में सहना पङता है उस औरत को जो सालों साल शराबी पति, उद्दण्ड पङौसी, गुण्डा तत्वों की जिल्लत सहने के बाद एक दिन हिम्मत करके थाने आई थी न्याय और राहत की उम्मीद में । सहना पड़ता है उन लोगों को जिनकी जमीन कब्जा ली गई हैं और शायद निचले रैंक के कर्मचारी उसमें शामिल हैं लेकिन SHO साहब काम ना आने की वजह से खुद उन्हीं कर्मचारियों पर आश्रित हैं जो कब्जा कराने में शामिल हैं । पाप है ये। कौन जिम्मेदार है इस पाप का?
आला अधिकारी इसे केवल पोस्टिंग का मसला ना समझे । दिल्ली और देश की आम जनता की “भगवान” के बाद अगर किसी से न्याय की अपेक्षा होती है तो वो पुलिस है और पुलिस में भी SHO. क्योंकि न्यायालय को भी पुलिस ही चालान भेजती है और साधारण आदमी के लिए FIR हेतु सीधे न्यायालय जाना संभव नहीं तो आसान भी नहीं, ये सब जानते हैं ।
एक और बिन्दु है:- जब आपको पता है कि चाहे अच्छा काम मेहनत से करो या टाइम पास, SHO का कार्यकाल तो Fix है, दोबारा जब लगाएंगे ही नहीं तो काहे मेहनत करना? यानी हैल्दी कम्पीटिशन समाप्त ।
फिर समाज में आप स्वयं क्या मैसेज दे रहे हो ये बता कर कि 3 साल जो इंस्पेक्टर SHO रह चुका वो दोबारा नहीं लगेगा? अरे आप स्वयं इस पोस्ट को “रेवङी” बना रहे हो। एक और इससे नुकसान होता है और जो इस घटनाक्रम की जड़ भी है ” कि केवल रिकॉर्ड और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस व कम्प्यूटर की तरह set criteria के आधार पर अंकों से मेरिट बनाने का आदेश देकर आप स्क्रीनिंग कमेटी के मेंबर को उनकी जिम्मेदारी से मुक्त कर दे रहे हैं । कोई नाकाबिल SHO सिलेक्ट होने पर कमेटी कहेगी कि आपके द्वारा “निर्धारित ” मानदंडों के हिसाब से इसके अंक ज्यादा बन रहे थे हम क्या कर सकते हैं । इसी जिम्मेदारी से मुक्त होने का अहसास “भी” ऐसे अफसरों को गलत रास्ते पर चलने का मौका देता है ।
अतः दोषारोपण और इसे मसालेदार खबर समझ चटकारे लेने की बजाय सम्बन्धित अधिकारियों और ग्रह मंत्रालय को संज्ञान लेकर दिल्ली की जनता को बेहतर अधिकारियों की सेवाओं से लाभान्वित करना चाहिए, यही धर्म है । कर्मठ ईमानदार लोगों की इस देश में कमी नहीं है । जरूरत है उन्हें सही जगह काम लगाने की । ये काम एक मानक बना कर बाबूगिरी पर छोड़ने का नहीं है । हमें आंख और कान खुले रखने होंगे ।