दुर्लभ है तिवारी जी जैसा सहकर्मी!

कर्पूरी ठाकुर

पं. रामानन्द तिवारीजी का नाम पहली बार सन् 1942 ई. की क्रांति में सुनने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था। सारे देश में अंग्रेजी राज्य के खिलाफ आजादी के दीवाने छात्रों, युवजनों, किसानों, मजदूरों एवं अन्य वर्ग की जो देशव्यापी बगावतें हुईं, उनमें एक बगावत हुई थी, जमेशदपुर के पुलिस सिपाहियों की । सन् 1942 ई. के जनविद्रोह की यह सचमुच एक अद्भुत एवं अविस्मरणीय घटना थी। उक्त सिपाही विद्रोह कदापि नहीं होता, यदि उसके नेता पंडित रामानन्द तिवारी नहीं होते। सब कुछ होते हुए भी साहसी एवं प्रेरणाप्रद नेतृत्व के बिना वह विद्रोह या क्रांति कभी संभव नहीं होती, जो पंडित रामानन्द तिवारी ने पुलिस में की। तरुण एवं विद्रोही भारत यह जानकर उस समय बहुत पुलकित हुआ था।

उक्त दिनों तिवारीजी पर महात्मा गाँधी के जीवन और विचारों का गहरा प्रभाव था। वे ब्रिटिश राज्य में पुलिस सिपाही रहते हुए भी खादी पहनते थे, नियमित रूप से हरिजन पत्र पढ़ते थे और यथासाध्य अन्य गाँधी साहित्य का अध्ययन भी करते थे। वे सिपाहियों से चन्दा करके छोटी-मोटी रकम क्रांगेस कमेटी को चुपके-चुपके दिया करते थे। उनके हृदय में उस समय भी देश-भक्ति एवं देश- स्वातंत्रय की भावनाएँ तरंगित हुआ करती थीं बराबर हिलोरें मारती रहती थीं। सिपाही विद्रोह कोई आसान काम नहीं होता। यह भयंकर जोखिमों से भरा हुआ काम है। यह तिवारी जी जैसे शूर ही कर सकते थे और उनके विश्वसनीय नेतृत्व में उन पर आँख मूँदे कर विश्वास करने वाले उनके सहयोगी सिपाही ही ।

हजारीबाग के सेंट्रल जेल में अगस्त क्रांति के अग्रदूत श्री जयप्रकाश नारायण के पलायन के साहसी और जोखिमभरे कार्य ने भी तिवारीजी को साहसी बनने के लिए अत्यधिक प्रभावित किया। बाद में वे जे.पी. के जीवन, विचार और कार्यों से भी प्रभावित हुए। जेल से छूटने के बाद वे भूमिगत होकर जे. पी. के विचारों और संदेशों के अनुसार कार्य करने लगे। फिर गिरफ्तार हुए और काफी दिनों के पश्चात् पुनः रिहा हुए।

जेल से छूटने के बाद वे जे.पी. तथा समाजवादी आंदोलन के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ गये। यदि किसी एक नेता की बात वे सबसे ज्यादा मानते और सुनते थे, तो वे जे.पी. थे । जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने और सारे बिहार के पुलिस सिपाहियों में स्वाभिमान भरने और देश-स्वातंत्र्य की भावना जगाने का काम आरंभ कर दिया उन्होंने उनका एक शक्तिशाली संगठनखड़ा किया और पुलिस अधिकारियों के अन्याय तथा अपमानजनक व्यवहार के विरुद्ध विद्रोह करने का भी आह्वान किया। फलस्वरूप 1942 ई. के पुलिस सिपाही विद्रोह से सौ गुना व्यापक विद्रोह हुआ सन् 1947 ई. में तिवारीजी पर सिपाहियों का अटूट विश्वास था, और वे उनको अपना मसीहा मनाते थे। यही कारण है कि सिपाहियों ने उनके आह्वान पर विद्रोह किया, किन्तु गोरी फौज के बल पर उस विद्रोह को कुचल दिया गया गोरी फौज के इस्तेमाल को महात्मा गाँधी ने बुरा माना था और उसकी भर्त्सना भी की थी। यह एक अलग अध्याय है। इस पर यहाँ विस्तार से प्रकाश डालना न तो आवश्यक है न उचित ही एक बात अकाट्य है, वह यह है कि पुलिस-सिपाहियों में तिवारीजी ने जो चेतना जगाई, स्वाभिमान और आत्मसम्मान की जो भावना पैदा की और संगठित शक्ति के द्वारा अधिकार प्राप्ति के लिए संघर्ष का उन्होंने जो पाठ पढ़ाया, पुलिस सिपाहियों में तिवारीजी ने जो चेतना जगाई, स्वाभिमान और आत्म-सम्मान की जो भावना पैदा की और संगठित शक्ति के द्वारा अधिकार प्राप्ति के लिए संघर्ष का उन्होंने जो पाठ पढ़ाया, पुलिस सिपाहियों को उसका भारी लाभ मिला, जो आज भी मिल रहा है और उत्तरोत्तर मिलता रहेगा। हाँ, 1947 ई. के विद्रोह के चलते अनेक सिपाहियों को गोली का शिकार बनाना पड़ा और सैकड़ों सिपाहियों को अपनी नौकरी से हाथ धोना

पड़ा; किन्तु उनकी कुर्बानी व्यर्थ नहीं गई। सचमुच कुर्बानी कभी व्यर्थ नही जाती है। तिवारीजी से मेरा साक्षात्कार 1946 ई. में हुआ था। तब से हम लोग समाजवादी आंदोलन में उनके जीवन पर्यन्त साथ रहे और साथ-साथ काम किया।

सिपाही विद्रोह के मुकदमे में जब तिवारीजी जेल में थे, तब मैं बहुधा उनसे जेल में मिलने जाता था। वे मुझे कुछ लिखने के लिए दिया करते थे, चाहे बयान चाहे सरकारी इलजामों के जवाब। वे जैसा मुझे कहते थे, मैं उन्हें लिखकर दे आया करता था।

उन्होंने अपने मुकदमे में अदालत के सामने एक बयान दिया था। वह एक ऐतिहासिक, मार्मिक एवं तथ्यपूर्ण बयान था। उसे पुस्तिका के रूप में भी प्रकाशित किया गया था। वह बयान सरकार के ऊपर एक तमाचा था। वह पुलिस सिपाहियों से अन्याय के विरुद्ध विद्रोह की चिनगारी पैदा करने वाला बयान था। मैं सैकड़ों की संख्या में उक्त पुस्तिका को एक बड़े बक्से में भरकर ले जाया करता था और जहाँ-जहाँ मेरी आम सभाएँ होती थीं, उनमें मैं अपने भाषण के द्वारा उन्हें पेश करता था। एक बार जब मैं पलामू के दौरे समाप्त कर शाहाबाद जिले के दौरे पर जा रहा था, तब डिहरी स्टेशन पर सी. आई. डी. की रिपोर्ट से प्लेटफार्म पर ही मेरे बक्से की तलाशी ली गई और उक्त पुस्तिका की सैकड़ों प्रतियाँ जब्त कर ली गईं। जब मैंने पुलिस से इसका कारण पूछा तो उसने मुझे बतलाया कि बिहार गजट की अधिसूचना के अन्तर्गत यह पुस्तिका जब्त की गई है। मुझे इसका कोई पता नहीं था। मुट्ठी भर लोगों के सिवा गजट को पढ़ता ही कौन है?

मेरे विरुद्ध सरकार ने जब्त पुस्तिका रखने और बेचने के अपराध में सहसाराम कोर्ट में मुकदमा चलाया। मुझे मुकदमे में छह महीने की सजा हो गई। मैं सहसाराम जेल में सजा काटने लगा। पटना उच्च न्यायालय में मैंने अपील दाखिल की। सुविख्यात अधिवक्ता श्री आवधेशनन्दन सहाय मेरे वकील बने। हाईकोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि मैं जितने दिनों तक जेल काट चुका हूँ, सजा सिर्फ उतने दिनों की रहेगी। आदेश प्राप्त होने पर मैं जेल से रिहा हुआ। इस घटना ने तिवारीजी और हमको अत्यधिक निकट लाकर खड़ा कर दिया।

सन् 1952 ई. के आम चुनाव में हम दोनों बिहार विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए तत्पश्चात् हम दोनों उत्तरोत्तर एक-दूसरे के निकट होते गये। उन दिनों विधानसभा में सारे कामहिन्दी में नही होते थे। अंग्रेजी का तब बड़ा प्रभाव था। जहाँ तिवारीजी एक ओर अंग्रेजी में उपस्थापित विधेयकों, प्रस्तावों, संकल्पों एवं वक्तव्यों को समझने में मुझसे मदद लिया करते थे, वहाँ दूसरी ओर वे उन दिनों स्वयं अंग्रेजी सीखने-पढ़ने में लग गये और उन्होने अंग्रेजी समझ जाने की काम चलाने की योग्यता तुरन्त प्राप्त कर ली। तिवारीजी में लगनशीलता, तेजस्विता एवं प्रत्युत्पन्नमतित्व आदि गुण अद्भुत थे। कोई कल्पना नहीं कर सकता था कि सिर्फ मिडिल पास तिवारीजी बी.ए. तथा एम. ए. पास विधायकों, वकीलों, जजों एवं बड़े-बड़े दिग्गजों के सदन में इतनी जल्दी कान काटने लग जायेंगे। प्रश्नों, प्रस्तावों और भाषणों के द्वारा विधानसभा में उन्होंने अपना एक विशिष्ट स्थान शीघ्र ही बना लिया था। मुझे आज भी याद है, एक बार जब स्वयं सरकार ने एक कांग्रेसी सदस्य से पुलिस बल में उत्तेजना एवं अनुशासनहीनता फैलाने का आरोप तिवारीजी पर लगाकर प्रश्न पुछवाया था, तो तिवारीजी ने पूरक प्रश्नों की झड़ी लगाकर श्री कृष्णवल्लभ सहाय को पानी पिला दिया था और उनकी सहायता में डॉ. अनुग्रह नारायण सिंह को सरकार के बचाव के लिए दौड़ना पड़ा था। सर्वाधिक तथ्यपूर्ण एवं महत्त्वपूर्ण होता था तिवारीजी का पुलिस बजट की माँग पर भाषण । अपने वर्षों के अनुभव के आलोक के अतिरिक्त पूरे राज्य के कोने-कोने से पुलिस सिपाहियों से प्राप्त जानकारी और तथ्यों के आधार पर दिये गये तिवारीजी के भाषण मुख्यमंत्री से लेकर आई. जी. तक के दाँत खट्टे करने वाले होते थे। मैं नहीं जानता कि संसार के किसी देश की संसद में इतना कम पढ़ा-लिखा आदमी एक बेजोड़ सांसद या विधायक के रूप में विकसित तथा प्रस्फुटित हुआ हो।

अनेक आंदोलनों और संघर्षो में हम दोनों ने संयुक्त रूप से भाग लिया था। सन् 1959 ई. में जब अखिल भारतीय रेल कर्मचारी महासंघ, डाक-तार कर्मचारी महासंघ और अन्य केन्द्रीय कर्मचारी संगठनों की ओर से हड़ताल की गई थी, तो पटना में सैकड़ों कर्मचारियों के साथ बारह बजे रात को हम दोनों को भी गिरफ्तार कर लिया गया था और पटना सेंट्रल जेल में बंदी बनाया गया था। 1965 ई. में 9 अगस्त को जब बिहार बंद का आह्वान कुछेक विरोधी दलों की ओर से किया गया था तो पटना में और बिहार में 9 अगस्त के सफल बंद को विफल बनाने के लिए सरकार ने घोर दमन-चक्र चलाया था। हजारों कार्यकर्त्ताओं, छात्रों, युवकों, नेताओं और पत्रकारों को गिरफ्तार करके जेल में बंद कर दिया गया। पटना में लाठियाँ चलीं गोलियाँ चलीं और डॉ. राममनोहर लोहिया तथा सर्चलाइट के संपादक श्री के. एन. जार्ज को गिरफ्तार कर लिया गया। 144 धारा के साथ-साथ पटना में 9 अगस्त को कर्फ्यू लगा दिया गया। इस अन्याय का विरोध करने के लिए 10 अगस्त को पटना में जब हम लोगों ने 144 धारा का उल्लंघन करके आमसभा का आयोजन किया, तो नेताओं, कार्यकर्त्ताओं एवं श्रोताओं पर अन्धाधुन्ध और निर्मम लाठी प्रहार किया गया, जिसके फलस्वरूप साम्यवादी नेता स्वर्गीय चन्द्रशेखर सिंह, रामावतार शास्त्री तथा समाजवादी नेता श्री रामानन्द तिवारी, श्री रामचरण सिंह विधायक के अतिरिक्त श्री पृथ्वीनाथ तिवारी और हम बुरी तरह जख्मी बनाये गये। हम सबों पर सांघातिक हमले किये गये। मार इतनी जबर्दस्त थी कि चन्द्रशेखरजी, तिवारीजी, रामचरणजी के और मेरे जख्म ठीक होने और स्वस्थ होने में चार महीने से भी अधिक समय लग गया। डॉ. राममनोहर लोहिया के साथ हम लोग हजारीबाग सेंट्रल जेल में नजरबंद कर दिये गये। नजरबंदी के अलावा हम लोगों पर और कई झूठे मुकदमे लाद दिये गये।

  1. श्री कर्पूरी ठाकुरजी का यह लेख अधूरा है। उन्होंने कहा था कि 1980 ई. तक का संस्मरण लिखकर दूँगा; पर कार्य व्यस्तता के कारण इस संस्मरण को वे पूरा नहीं कर सके। विवश होकर अपूर्ण संस्मरण ही छापा जा रहा है।

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